"चल अविनाश अब चलते है मन की उड़ान हम भरते हैं. बंद आँखों की बातो को,अल्हड़ से इरादों को, कोरे कागज पर उतारेंगे अंतर्मन को थामकर,बाते उसकी जानेंगे चल अविनाश अब चलते है मन की उड़ान हम भरते है"
गुरुवार, 13 दिसंबर 2018
तब शायद तुम्हे मुझसे प्रेम होगा।
सोमवार, 10 दिसंबर 2018
तर्पण
आज तुम्हारा तर्पण है!
तर्पण अधूरे वादों का,तर्पण टूटे धागों का।
तर्पण बीती बातों का,तर्पण उनींदी रातों का।
तर्पण मेरे-तुम्हारे बीच के "हम" का।
तर्पण धीरे-धीरे उपजे प्यार के हिस्सों का है।
तर्पण रोज-रोज की तकरार के किस्सों का है।
कर दूँ तर्पण।
कर दूँ अर्पण तुमको जो तुम्हारा था।
रख लूँ वो सब जो मेरा था।
कर दूँ विसर्जित वो सब जो हमारा था।
काव्य का निर्माण
उपजती हैं कुछ पंक्तियाँ अनायास
फिर बनाता हूँ वाक्यों की मीनार,
थोड़ी अर्थ पूर्ण,थोड़ी सी निरार्थ।
पूर्ण हो जाता है कोई काव्यपात्र,
थोडा आत्मीय,थोडा सा परमार्थ।
बुधवार, 5 दिसंबर 2018
कल्पना ही तो थी
मंगलवार, 4 दिसंबर 2018
अंतर्द्वंद - 2
या सब अन्यथा था?
दहन था श्वासों का
या भरम था एहसासों का।
रुदन थी,घुटन थी
या कोई थोथी चुभन थी।
पीड़ा तुम्हारी सच्ची थी
या कोई बात जो कच्ची थी।
पथ में बिखरे काँटे थे
या तिनके आते जाते थे।
सच मे टूटा कोई पहाड़ था
या नादान सा कोई गुबार था।
सच मे ये संताप था
या झूठा कोई प्रलाप था।
सारी रात आँखें बहीं थीं
या पानी के छींटो की नमी थी।
सपनो का महल ढहा था
या छोटा सा कतरा गिरा था।
या कुछ पल को ही घिरा अंधेरा था।
गुरुवार, 22 नवंबर 2018
पीड़ा का आँगन हूँ मैं
पीड़ा का आँगन हूँ!
पलती हैं मुझमें व्यक्त अव्यक्त सारी पीड़ाएँ।
पीड़ा बस मेरे मन की नही
तुम्हारी पीड़ा भी सहेजी है मैंने मुझमें।
मात्र पीड़ा ही नही
बहुत कुछ पलता है इस आँगन में।
श्वेत पुष्पो से परिपूर्ण
एक पौधा भी उगा है इस आँगन में
सदाहरित रहने वाला
हमारे आत्मीय उल्लास का प्रतीक।
प्रीत की ध्वनि उठाने वाले
वाद्ययंत्र भी रखे हैं एक कोने में
यदा कदा इनमें
विरह की ध्वनि भी बज उठती है।
एक चूल्हा भी है
पकता है प्रणय पाक जिसमें।
तड़प,प्रेम,अगन,विरह,सृजन।
सब फलता है इस आँगन में।
जो जुड़ा है तुमसे मुझसे और हमसे।
मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018
अंतर्द्वंद -1
सोमवार, 20 अगस्त 2018
हसीं बातें
गुलाब,गेंदा,रजनीगंधा के पुष्प चुनना।
गाँव के किसी बाग़ में,
मयूर,कोयल,पपीहा की बोली सुनना।
कस्बे के बच्चो संग,
लुकाछुपी,बर्फ-पानी,नदी-पहाड़ खेलना।
किराये की पुस्तक में,
ध्रुव,नागराज,चाचा की कहानियां पढना।
दोपहर में घर से भागकर,
नदी,तालाब,बांध में उतरकर नहाना।
आधे स्कूल से भागकर,
कहीं से आम,अमरुद,इमली चुराना।
त्यौहार में सबके आने पर,
सांप-सीढी,लूडो,व्यापार का चलना।
बहुत हसीं है,
कभी भी कहीं भी इन बातों का घटना। "
शुक्रवार, 17 अगस्त 2018
भावों का भी होता है ऋतूछरण
बेसाल्ट की तरह।
फिर हो जाते हैं वो कायांतरित।
द्वेष के जमाव से।
और हो जाते हैं वो काकवर्ण।
मिटटी की तरह।
बढ़ जाती है छमता उनकी।
धीरज धरने की।
फिर उपज जाती हैं दूरियां।
धीरे-धीरे।
संबध हो जाते हैं अम्लीय।
कभी-कभी।
खा जाता है आत्मीयता को।
जाल स्वार्थों का।
और पड़ जाते हैं दाग-धब्बे।
रिश्तों की डोर पर।
कभी खो जाती है मूल वृत्ति।
अपनत्व की।
गोंडवाना शैलों की तरह।
बदल जाता है रंग उसका।
हो जाती हैं संभावनाएँ कम।
साथ चलने की।"
धूप वंदना
पर देता है शीतलता
आँखों को।
कभी-कभी असहनीय है
पर तू आवश्यक है।
तृष्ण सी है आभा तेरी,
पर देती है हरियाली तू
प्रकृति को।
तू प्राणदायनी है,
यूँ ज्वलित होकर भी
उत्पादन करती है,
अतुल्य तेरा ताप है
पर देती तू संताप है।
तू जीवन की प्रसूता है।
तेजोमया है करुणामयी है।"
"अदम्य उर्जा का श्रोत है तू धूप।"
तुम हो
कत्त्थई डायरी
इश्क के मकान से गुजरकर
कुछ एहसास ले आऊं।
कभी कभी चंद पंक्तियाँ उतार देता था पन्नो पर,
वहीं था जो मेरी कत्त्थई डायरी के पन्नो तक सिमटा हुआ था।
उसे सुपुर्द कर आया।
अचेतन मन
देखने लायक थी
कालिख देखने लायक थी।
सच पड़ा था जब रद्दी में,
गर्दिश देखने लायक थी।
बात निकली जब दूर तक,
रंजिश देखने लायक थी।
दूर ही रह गई मंजिल तो,
नहीं मिल पाई कामयाबी,
जुर्रत देखने लायक थी।
साझी दुनिया
तुम्हारी व्यथाएँ मेरी हो जाएँ।
धड़कने,साँसे,रुदन,हँसी,
मेरी और तुम्हारी।
आओ बंटवारा कर लें,
इनका भी ऐसे कि,
मेरा हिस्सा तुम रख लो।
तुम्हारा भाग मै माँग लूँ।
फिर सब कुछ,
न पूरा मेरा होगा,
न पूरा तुम्हारा होगा।
परेसानियाँ,चिंताएं,
संवेदनाएं,आशाएँ।
जो भी होंगी सब हमारी होंगी।
फिर बन जाएगी हमारी,
साझी दुनिया।
तुमने शर्म को बेच खाया है।
क्या अब कोई तथागत बन सकता है?
क्या आ सकते हैं आदि शंकराचार्य?
नही होगा अब कोई रामानंद!
नही होगा अब कोई कबीर।
नही मिलेगा अब कोई परमहंस,
नही बनेगा कोई बालक नरेन्द्र,
अब विवेकान्द।
आया तो बंट जाएगा हर कोई,
भगवा,नीले,हरे और लाल रंगों में।
बंध जाएँगे विचार अब,
इन समूहों की परिधि में।
सोचता हूँ
जैसे अक्षरों को
बांध के शब्द बना देता हूँ।
फिर शब्दों को
बांधकर वाक्य।
फिर वाक्यों को
मिलाकर ही तो,
अर्थ दे देता हूँ
अपने भावों को।
बस इन्ही अक्षरों की तरह।
एक सूत्र में मेरे साथ।
मन से मन को जोड़कर,
पाना चाहता हूँ एकत्व को।
सोमवार, 23 जुलाई 2018
जब कलम ने रचना गढ़ी थी
तब उभरी होगी जेहन में,
छवि मनु की।
हुए होंगे बिम्बित चित्र नव जीवन के ,
आँखों में उनकी।
जब दिनकर ने रश्मिरथी लिखी थी!
तब देखा होगा राधेय कर्ण को,
होते हुए विजित,
सामजिक व्यवस्था से।
जब बच्चन ने मधुधाला लिखी थी!
तब देखा होगा उसने हाला में
जीवन की पाठशाळा को।
टंकित होगा धर्म का सार,
मधुकलश में।
जब टैगोर ने गीतांजली लिखी थी!
तब किया होगा, श्रृंगार काव्य का
जीवन के हरपक्ष ने।
जब किया था प्रेमचन्द ने,
साहित्य का संधान!
तब उपजा होगा जीवनवृत्त
हर व्यक्ति का आत्मन में उनके।
शुक्रवार, 15 जून 2018
उड़ जाएगा हंस अकेला
वो डरता है समहू से दूर होने से।
वो डरता है उन चीजो को करने से जो सब नहीं करते।
न जाने कितनी आकांक्षाओं को वो दबा लेता है,अंतर में ही क्योंकि वो डरता समाज से हट कर कुछ करने से।
लेकिन इतिहास लिखने के लिए अक्सर करना पड़ता है कुछ अस्वाभाविक, तोडना पड़ता है वर्जनाओ को।
ज्यादा मुश्किल नहीं है अलग होना!
बस कुछ छोटी छोटी बातें हैं।
बस ये कार तुम्हारे नाम पर है,जिसके लोन की कुछ किस्ते पटानी अभी बाकि है। ये घर भी तो तुम्हारे नाम पर लिया है मैंने जिसका लोन मै हर महीने चुकाता हूँ। बच्चो को स्कूल मै छोड़कर आ जाता हूँ घर तुम ले आती हो।
तुम्हारे आने के बाद घर का बना खाना भी मुझे मिल जाता है,सेहत भी अच्छी रहती है। तुम्हारे लिए ही एलआईसी की पॉलिसी भी करवा के रखी है मैंने। अब ऐसी कोई और खोजने में क्यों इतनी मेहनत करूँ पता नहीं मिलेगी भी की नहीं।
हाँ छोटी छोटी बाते ही तो हैं कुछ।
तुमसे मिलने के बाद ही तो मै नखरे करना सीख गई नहीं तो कौन मेरी छोटी छोटी फरमाईशों पर ध्यान देता।
जब घर में बोर होती हूँ तो तुमसे फोन पर लड़ के बोरियत दूर हो जाती है। तुमने ही तो मुझे बताया की हाउसवाइफ के लिए भी हप्ते में एकदिन छुट्टी का दिन होता है जब तुम घर के सारे काम पुरे कर देते हो। तुम नही होते तो कौन सुनता मेरी बेमतलब की बातों को। कौन मेरी तारीफ करके मुझे खुश करता। कौन होता है जिसके साथ मै सुरक्षित मससूस करती। अब मेरी उम्र के 35 साल बीत जाने के बाद ऐसा दूसरा कोई कहाँ मिलेगा।
अच्छा सुनो थोड़ी बहुत लड़ाई कर लेंगे छोटी मोटी बातों को भूल जाएँगे। पर साथ में ही रहते हैं। हाँ सही बोल रहे हो तुम।
मंगलवार, 16 जनवरी 2018
एक पत्ते और उस टहनी के बीच की बातें अधूरी रह गईं
पेड़ के एक पत्ते और उस टहनी बीच की बातें अधूरी रह गईं।
क्यों अलग कर दिया लकड़हारे ने टहनी को पेड़ से?
क्यों रह गईं दोनों की बातें अधूरी?
ऐसे ही कितना कुछ अधूरा रह जाता हैं। "
ये वो दौर था जब सांप्रदायिक विचार अपने चरम पर थे। यही वो दौर था जब दोनों की भेंट हुई थी। बलूचिस्तान क्षेत्र का एक छोटा सा गाँव था। समरसपुर,, समरस का एक अर्थ घुलमिल कर रहना भी होता है। उसी प्रकार उस गाँव में सभी समुदायों के लोग सांप्रदायिक और जातीय बंधनो से परे मिलकर रहते थे। सिख और मुस्लिम सम्प्रदायों की बहुलता थी वहां।
मंजीत और साहिल दो 12 -13 वर्षीय बालक पेड़ रूपी उस गाँव की एक टहनी और पत्ते की तरह एक दुसरे के घनिष्ट मित्र थे।
ये 1947 का भारत की स्वतंत्रता , विभाजन और राजनितिक उथल-पुथल का दौर था। देश में सांप्रदायिक अलगाव भी अपनी परिणीति पर था। सभी सिख परिवार बलूचिस्तान जो की पाकिस्तान का हिस्सा था उसको छोड़ कर भारत जा रहे थे।
इसी क्रम में मंजीत का परिवार भी समरसपुर छोड़ कर भारत की और आ गया। साहिल और मंजीत भी एक दूसरे से अलग हो गए।
"मंजीत रूपी टहनी पेड़ से अलग ही गई। पत्ते रूपी साहिल और उसकी बातें अधूरी रह गईं।
वो लकड़हारा साम्प्रदायिकता थी जिसने टहनी और पेड़ से अलग कर दिया।"
बुधवार, 10 जनवरी 2018
सन्दर्भ ऐतिहासिक है पर वर्तमान भी बहुत हद तक प्रभावित है
"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"
तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...
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एक शीशमहल में चिरनिद्रा में। देख रहा था स्वप्न वो। सीधी और सुंदर राह में, पंक्तिबद्ध खड़े वृक्षों को। हर डाल पर बैठे पंछियों को। उनके सुनहरे ...
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(पीड़ाएँ ) पीड़ाएँ कभी लुप्त नही होतीं उनकी अनदेखी कर दी जाती है। * (वेदनाएँ) वेदनाएँ कभी मृत नही होतीं हमारे आँसू संकीर्ण हो जाते हैं। ** (सं...
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तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...