उतर कर मन की गहराइयों में,
जिस लम्हे में, मै उलझा था।
वो लम्हा तुम हो।
जिसको हर छण देखकर,
हर पल सोचकर,
जिसमें असीमित डूब कर,
अतृप्त था।
वो नजारा,वो किस्सा,
वो सागर तुम हो।
जिसको कभी समझ न पाया।
जिसको उतार न पाया शब्दों में।
वो धुंधला,अलबेला,अनकहा सा,
फ़साना तुम हो।
जो निर्बन्ध है मुझसे,
मैं बंधा हुआ हूँ जिससे बेकस,
वो बंधन तुम हो।
जो अकारण मुझपे हँसती है,
वो अट्ठाहस तुम हो।
हर छोर से मुझे उलझाई हुई जो,
मरीचिका है वो तुम हो।
मेरा अधूरा सपना,अधूरा किस्सा,बेजोड़ हिस्सा,
शायद कोई अपना तुम ही हो हाँ तुम ही तो हो।
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