"जब प्रसाद ने कामायनी लिखी थी!
तब उभरी होगी जेहन में,
छवि मनु की।
हुए होंगे बिम्बित चित्र नव जीवन के ,
आँखों में उनकी।
जब दिनकर ने रश्मिरथी लिखी थी!
तब देखा होगा राधेय कर्ण को,
होते हुए विजित,
सामजिक व्यवस्था से।
जब बच्चन ने मधुधाला लिखी थी!
तब देखा होगा उसने हाला में
जीवन की पाठशाळा को।
टंकित होगा धर्म का सार,
मधुकलश में।
जब टैगोर ने गीतांजली लिखी थी!
तब किया होगा, श्रृंगार काव्य का
जीवन के हरपक्ष ने।
तब उभरी होगी जेहन में,
छवि मनु की।
हुए होंगे बिम्बित चित्र नव जीवन के ,
आँखों में उनकी।
जब दिनकर ने रश्मिरथी लिखी थी!
तब देखा होगा राधेय कर्ण को,
होते हुए विजित,
सामजिक व्यवस्था से।
जब बच्चन ने मधुधाला लिखी थी!
तब देखा होगा उसने हाला में
जीवन की पाठशाळा को।
टंकित होगा धर्म का सार,
मधुकलश में।
जब टैगोर ने गीतांजली लिखी थी!
तब किया होगा, श्रृंगार काव्य का
जीवन के हरपक्ष ने।
जब किया था प्रेमचन्द ने,
साहित्य का संधान!
तब उपजा होगा जीवनवृत्त
हर व्यक्ति का आत्मन में उनके।
जब पंत ,महादेवी और निराला ने,
चुना था छायावाद!
तब आई होगी प्रकृति लेकर
अनगिनत भाव।
जब रची थी नीरज और दुष्यंत ने
गीतो की माला!
प्रेम,विरह,साहस सब आएँ होंगे,
बनकर भावों की रंगशाला।"
प्रेरणा दी थी सबको!
कभी प्रकृति,कभी परिस्थिति
कभी वृत्ति ने।"
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