शनिवार, 19 सितंबर 2015

नज्म-2

"जरा वाजिब था,
कुछ गैर जरुरी सा,
अफ़साना ये दिल का फिजूल था.
तेरे रुखसार की आहटे,
सलवटों में सिमट गयी,
कुछ पल को.
चुभती सी आह एक ,
बाकि रह गयी.
अनकही सी बात एक,
बाकि रह गयी.
ना मुकम्मल हुआ,
ना खत्म हुआ.
थम सा गया,
सब एक लम्हे में "

गुरुवार, 17 सितंबर 2015

मेरी कविता

"उत्साहित था,
जब उभरी थी तुम
पहली बार।
सरसराती नजरो से,
तो कभी एकटक देखा तुम्हे,
असीम संतुष्टि संग लिए,
उभरी थी तुम।
मैंने ही गढ़ा था तुम्हे,
मेरे अंतर्मन की ,
आभा थी तुम।
मेरी सिसकियो,
खिलखिलाहट,
मेरी फिसलन,
प्राप्तियों,
सबको तुम आवाज देती हो।
मेरी सच्ची साथी,
मेरी आशा,शांति,
मेरे अंतर्मन की,
परिभाषा हो तुम।"


सोमवार, 6 जुलाई 2015

समर्पण

"मन और मष्तिष्क का अंतर
शून्य हो गया
ये एकरूपता तुमसे ही है
दोनों के द्वन्दो से मुक्त
मै स्वक्षंद हो गया
ये अल्हड़ता तुमसे ही है
तर्क और भावना का जुड़ाव हो गया
इस सम्भावना का आविर्भाव हो गया
ये गठबंधन तुमसे ही है
आकांक्षा और संतुष्टि
एकटक हो गये
ये समागम तुमसे ही है
राग ,द्वेश छुधा,तृष्णा
का अंत सब तुमसे ही है"

मनोरथ

"मन है रथ का अश्व
भ्रम में डूबा अदिश सा
विचरता है
सारथी तो आत्म है
जो दिशा ज्ञान उसे देता है
है मनोरथी वो
कर्मो के बीज बोता है
भावनाओ को थाम
उनसंग बहने से
रोकता है
मन स्वक्षंद सा हर ओर
आशक्त हो जाता है
आत्म इसे सही राह
बताता है
मन युद्ध का बीज बोता है
आत्म विजयश्री से
अंत करवाता है"
हाँ मनोरथी ये जीवन को
सार्थक बनाता है"

बुधवार, 1 जुलाई 2015

:) :)

रंगत एक सी है दोनों की
एक उषा दूजी संध्या
एक द्वार है उजियारे का 
दूजी चौखट अंधियारे का

बहुरंगिनी दुनिया में

"इस
 बहुरंगिनी दुनिया में
 भांति भांति के लोग मिले
 कुछ पत्तियों से कोमल थे
 जो मोहित हरपल करते थे
 जब पतझड़ आया टूट गये
 हा विकट समय में छुट गये
 कुछ शाखों से मजबूत मिले
 हर मौसम डटं के साथ खड़े
 हाँ उनके कदम भी ठिटक गये
 कुल्हाड़ी के प्रहार से टूट गये
  हाँ जड़ से कुछ सख्त मिले
  कठोरता से आलब्ध मिले
  वो जीवन भर को जुड़ गये
  हर कदम साथ को लब्ध मिले
   इस बहुरंगिनी दुनिया में
   भांति भांति के लोग मिले "

एक कविता सांवली सी

"सुनो एक कविता सांवली सी,
शाम का आवरण ओढ़े हुए,
विचरती हो वो खुशबू सी।
लता सी लटो को गुथे हुए,
वो निशा सुन्दरी श्यामली सी।
है लहराता आँचल पत्तो का,
पुष्प जड़ित चुनर है ।
प्रकृति का दामन थामे,
इठलाती सी वो अनुपम है।
वो निर्बन्ध हैं,अकथित हैं,
अथक प्रयत्नों के बाद भी,
शब्दो में अगठित हैं।
है उषा काल सा अम्बर उसका,
वो आधार पक्ष है नई सुबह का।"

रविवार, 28 जून 2015

मन-अंतर्मन

"एक ओर मन है तो दूजा अंतर्मन
है नदी के दो किनारों से
  बहते समांतर दोनों एक दुसरे के
  लक्ष्य दोनों का एक ही है 
  गिरना तो सागर में ही
  मन फिरता इधर उधर प्यासे सा 
  दूजा खुद में ढूढ़े मार्ग तृप्त होने का
  एक चंचल से पंछी सा है
  एक दरिया है निर्वेद का
  एक कौतुहल को बढ़ाता है
  दूजा शांतचित सा बनाता है
    मन छणिक सुख का देयता है
  अंतर्मन स्थायित्व का प्रणेता है"

बुधवार, 24 जून 2015

मै राजनीति हूँ

मै राजनीति हूँ। 
हाँ स्वार्थियों से घिरी सी हूँ
कोई मुझे कीचड़ कहता है
हर कोई नफरत करता है
हाँ कभी कोई आता है
ईमानदारी का
डंका बजता है  
उम्मीदे नई जगाता है
फिर रंग नय दिखाता है
इस भूलभुलैया में खोकर
वो भी गुम हो जाता है
वो भी खुद को छोड़कर
मक्कारी और धोखेबाजी
को अपनाता है
ईमानदारी क्या अवगुण है
क्यों ये मुझसे दूर है
मै धूर्तो को दासी हूँ। 
उन्हें ही सर पे बिठाती हूँ। 
फिर भी उम्मीद में बैठी हूँ। 
दबी सी जुबान में कहती हूँ। 
बचा लो मेरे दामन को
सतगुणो से सींचकर
सजा तो तुम इस आँगन को 

बुधवार, 20 मई 2015

सवाल- जवाब

जरा सी सहमी जरा खामोश सी है
रात की अदा ये शोख़ सी है
ये शांति की रचना है, अलबेला साज है
इसका ना अंत है ना ही आगाज है
मै अंजान हु आने वाले पल से
हु बेखबर इसमें सिमटता जा रहा हु
किसकी कमी है?? क्यों अकेला हु???
सारे रास्ते बंद है क्या?? मंजिल किधर है??
ढूंढ़ रहा हु रौशनी टटोल रहा हु बंद आँखों से
कहा है सवेरा?? नाराज क्यों है मुझसे ???
क्या मैंने साहस छोड़ा था???
तब इसने मुह मोड़ा था????
चलो फिर आगाज में करता हु
फिर से आहे भरता हु
अब ना साहस छोडूंगा
कर्तव्य से मुख ना मोडूंगा
थपेड़े सारे सह लूँगा
अब ना हो आगाज रात का
ऐसा अंत मै करूँगा
फिर सवेरा उल्फत करेगा
बाहों में मुझको भरेगा"

क्या मै तुम्हे जानता हूँ


"क्या मै तुम्हे जानता हूँ ?
  रोज तुम्हे सोचता हूँ,
  नई परते खुलती है,
  नया सा तुम्हे पाता हूँ ।
  खुद से सवाल करता हूँ,
  अब क्या तुम्हे मानता हु?
  क्या में तुम्हे जानता हूँ?
  या अब भी अंजान सा हु?
  कितने तुम्हारे रंग है?
  कैसे तुम्हारे ढंग है?
  तुम अच्छी हो या बुरी?
  तुम खोटी हो या खरी?
  क्या वजह दूँ तुम्हारे साथ को?
  कहा जगह दूँ तुम्हारे नाम को?
 अब ये कैसे तय करू?
 कैसे पहचानू तुम्हे?
 कितनी तुम गहरी हो ?
 तुम कहा पर ठहरी हो ?
मै खुद से सवाल करता हूँ।
तुम्हे रोज में पढता हूँ
जाने कितनी उलझी हो
हाँ अभी तुम धुंधली हो"

सोमवार, 11 मई 2015

मदर्स डे


"रोहन आज माँ को लेने वृद्धाश्रम गया है उसके सीनियर अधिकारी आने वाले है मदर्स डे पर उनके घर लंच पर रोहन जा ही रहा था तभी उसकी पत्नी उससे कहती है सुनो साम को ही माँ जी को वापस वृद्धाश्रम छोड़ कर आ जाना कल मेरी कॉलेज फ्रेंड आ रही कल यही रुकेगी माँ जी और वो दोनों एकसाथ यहाँ एडजस्ट नही हो पाएंगी तभी रोहन के सिनियर का फोन आता है की उनकी माँ की अचानक तबियत ख़राब हो गयी वो उनका आना केंसल तभी दोनों गहरी साँस लेते है पत्नी कहती है चलो अब माँ जी को यहाँ लाना नही पड़ेगा 

शनिवार, 9 मई 2015

अनछुए एहसास

वो शख्स है अलबेला से
कई रंगो को लपेटे हुए
कभी मायूसी की वो चादर है
कभी उजला सा वो आँचल है
कभी उसे बदहवास पाया
कभी जाता हुए साज पाया
किसी ने पढ़ा उसकी आँखों को
किसी ने सुना उसको बातो को
बस एक आयाम जो धुंधला था
वो जो अंतर्मन पर फैला था
कभी नदिया सा वाचाल था
कभी सागर सा वो शांत था
वो हरपल मुश्कुराता था
खुल के जज्बात लुटाता था
बस छुपा रखा था उन अश्को को
जो तनहाई में बहाता था
हाँ लोगो का कहना है
बड़ी रंगीन उसकी दुनिया है
ये सबकुछ भ्रम का जाल है
उसके मन के श्वेत पत्र से
हरकोई अंजान है।

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

सार्थकता की ओर

सार्थकता से दूर
जा रहा है जीवन
दबी सी आवाज में
मुझसे कुछ
कह रहा है जीवन

इन छणिक
मनोभावों की पूर्ति में
लक्ष्य  से पीछे
हट रहा है जीवन

क्या मनोइछा
की पूर्ति ही सार्थकता है
नहीं ये तो स्वार्थपरता है

नहीं अब सार्थकता की
और जाना है
जीवन में संयम को
अपनाना है
बस लक्ष्य  की ओर
ध्यान लगान है

छोड़ कर सारे
झमेलों को
दुनियाभर के
मेलो को
बिना खिट -पिट
बिना शोर
ख़ामोशी से बढ़ना है
लक्ष्य  की ओर

लक्ष्य  हो ऐसा की
बनु में इतिहास
फैले नाम
जैसे फैला
ये आकाश

करे लोग मुझपर
विश्वास
मेरे जीवन से हो
संसार को लाभ

हाँ यही लक्ष्य  है
यही सत्य है
यही सार्थक है
यही प्रवर्तक है।

शनिवार, 11 अप्रैल 2015

उषा उदय

उषा उदित हुई स्वछंद     
टूटे निद्रा के उपबंध
                                                           
हुई उद्दीपित नवल उमंग                                                    संरचित हुए नव प्रबन्ध्
                                                                        
है वातावरण शांतचित्त सा                                               
होने को है आगमन प्रदीप का                                             मुख दर्पित हो प्रियतम का                                              
गुजरे दिवस स्वर्णिम सा

उत्साह को अग्रिम कर
ठिठक को विष्मित कर

उद्धम की मजबूत जड़ो से
निर्मित हो वृक्ष ठोस धड़ो से

सृजित हो शाखाये सआधार
हर पात उपजे नवाचार।

शब्दार्थ-
उषा- सूरज उगने से पहले का समय
उपबंध - बंधन
उद्दीपित- उत्त्पन्न होना                                                      संरचित  - बनना/रचना होना                                              प्रदीप - रौशनी देने वाला/सूरज
विष्मित - भ्रमित करना                                                    उद्धम् - नई चीज बनाना/स्थापित करना                               पात - पत्ता
नवाचार- नई  विचारधारा।                         

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

भावना

भावनाओ की घनी घटाएं
फैली हुई हैं मन के छितिज पर,
अनुराग भी है और द्वेष भी है
कोलाहल भी है और  निर्वेद भी है 
चाह भी है और त्याग भी है 
आकांक्षा भी है और संतुष्टि भी है
वात्सल्य भी है और घृणा भी 
संयम भी है और अधीरता भी 
आशा भी है और निराशा भी 
उत्साह ही है और आलस्य् भी 
भय भी है और निडरता भी 
जड़ता भी है और प्रवाह भी 
तरह-तरह की भावनाओ का ज्वार 
पल-पल उठता और गिरता रहता है
किसी के लिए प्रेम उद्दीपित होता है 
तो किसी के लिए क्रोध आवेशित होता है 
किसी के इक्षा रखता हूँ
तो किसी से दूर भागता हूँ
कुछ करने को तत्पर रहता हूँ हर-पल 
तो कुछ को टालता हूँ जब-तब 
चंचल मन यहाँ वहा विचरता रहता है।
इसमें हर क्षण नया भाव उभरता रहता है।

                       

शनिवार, 21 मार्च 2015

खुशियो का एक लम्हा


आओ हम खुशियो का 
एक लम्हा चुरा लेते हैं।  
एक लम्हे को संजोकर 
हम दशको बीता लेंगे।
खिलखिलाता सा 
एक घर बना लेंगे।  
हाथो में हाथ लेकर 
मुस्कराहट से सजा देंगे। 
तुम्हारी हँसी की नीव पर 
वो घर खड़ा होगा। 
नखरों से तुम्हारे खर्चा चलेगा। 
तुम्हारी मासूम शरारते होंगी 
सामान सजावट का।  
छोटी-छोटी खुशियाँ संजोकर 
छू लेंगे आसमान।  
हाँ आओ चलो बसाते है आशियाँ 
देकर साथ एक-दूजे का 
बनाये अपना जहाँ। 

गुरुवार, 19 मार्च 2015

नटखट

हो नटखट तुम,
थोड़े बेखबर से।
खुद में मस्त रहते हो,
दुनिया से अंजान से।
भोले भाले हो,
हो तुम नादान।
अकल के कच्चे हो,
प्यारे बच्चे हो।
तुम्हे रंग अभी खुद में भरना है,
आगे बहुत कुछ करना है
छोड़ना ना  तुम
मीठे सपनो की डोर को
ये ले जाएगी तुम्हे ये
नई एक भोर को।                          

मंगलवार, 17 मार्च 2015

हवा

पूछा मैंने हवा से,
किधर है तेरी दिशा।
उसने कहा चल हट,
मुझे क्या पता। 
मै तो मनचली हूँ,
अपने रंग में ढली हूँ।
बहती हूँ मै बेलगाम,
मुझे औरों से क्या काम।
मेरा ना कोई छोर,
ना मैं किसी ओर। 
अपनी धुन में बहती हूँ,
अपनी मौज में रहती हूँ।
कहाँ जाना है,किधर जाना है,
मुझे ये सब ना पता।
मुझे बस बहते रहना  है,
सबको तृप्त करना है।
ना मेरा कोई देश,
ना ही कोई पंथ।
ना मेरी शुरूआत,
ना ही मेरा अंत।
हाँ मैं रुकूँगी तो,
सारा जहाँ रुक जाएगा।
बिना मेरे कोई कहाँ,
कोई टिक पाएगा।
मुझे बस चलना है, 
और चलते जाना है।
सारा जहाँ अपना है,
बस यही कहते जाना है।
बिना किसी भेदभाव के,
सबको जीवन देते जाना है।

रविवार, 15 मार्च 2015

हवा के परो पर



हवा के परो पर 
आसमानी घरो पर 
होगा अपना ठिकाना। 
मद्धम मद्धम तुम बहना,
मैं सर-सर-सर बलखाउँगा।
हवाई सुरों का राग होगा,
मतवाले गीत मैं गाऊंगा।
होके मगन तुम थिरकते रहना,
मैं मनचली तान सुनाऊंगा।
चारो ओर होगा बस
खुला आसमान।
न किसी की फ़िकर 
न किसी का काम 
बस सुरों से सजी थाल होगी 
खुसियों का खनकता साज होगा।
                    

शनिवार, 14 मार्च 2015

इतिहास कोई खास नहीं आम ही रचता है

जरा हटके ... बात आपके दिल तक पहुंच गयी तो ठीक न पहुंची तो भी बात निकल तो गयी है गौर जरूर फरमाइयेगा
"अधिकतर..कुछ खास या बड़े काम करने वाले को ही याद किया जाता है या फिर महान ना भी हो तो लोगो की नजर में महान होने पर उसको याद किया जाता है ऐसेवाले उदाहरण बहुत है हमारे राजनितिक इतिहास में
पर किसी को खास बनता कौन है आम इंसान ही बनता है हाँ इनको याद करना पड़ता है क्युकी महान लोग दुनिया से चले भी जाते है
पर आम इंसान तो कभी नहीं जाता...वो आज भी वही है कल भी वही था पहले मालिको सामंतो की गुलामी की तो कभी जमींदार का कर्जदार बंधुआ मजदूर बना तो कभी खेतिहर मजदूर तो एक दिहाड़ी मजदूर तो पूंजीवादी/नौकरशाही युग में दिन रात मेहनत कर अपने परिवार के लिए छोटी छोटी खुसिया बटोरने में लगा मद्यवर्गीय आदमी या सर पे बोझ उठाने वाली रेजा अपने घर की संवारती एक गृहणी .
या घर और नौकरी के बीच झूलती एक नौकरीपेशा. ये आम लोग तो कल भी वैसे ही थे आज भी वैसे भी है बस समय बदला चेहरे बदले किरदार तो वही है ये तो इतिहास से कभी गया ही नहीं और ये आम इंसान तो हमेसा रहेगा और इतिहास रचता रहेगा किसी को महान बनाएगा तो किसी को भुला देगा...पर ये तो अनवरत हर समय में जीवन को चुनौती देता रहेगा छोटी छोटी खुसिया बटोरता रहेगा हम आम नहीं हम खास है क्युकी हमारे कारन ही तो कोई खास है "

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

बिखरी बातें


ये बिखरी बातें,बेचैन सी रातें।

यूँ चुप-चुप सी,अनसुनी आहटें।


दिल की बातें कहने को,  
भावों की धार में बहने को,

में हर-पल तत्पर रहता हूँ;
बस तेरी बाते कहता हूँ।

जाने कैसा उन्माद है ये, 
जो मुझमे उठता रहता है।
तुझे कह दूँ की चुप रह जाऊँ,
इस बोझ को कैसे सह पाऊँ।

बिन कहे ही तुम सब सुन लो न,

आँखों को मेरी पढ़ लो न।

हर पल तेरे ख्वाब सजाता हूँ,
रूठ कर तुझसे मैं;
खुद ही खुद को मनाता हूँ।
कभी आकर तुम मना लो न,
मेरे बिखरे ख्वाब सजा दो न।


बेरंग सी है जिंदगी ये,
इसे प्यार का रंग लगा दो न।


- अविकाव्य

गुरुवार, 12 मार्च 2015

नासमझ

हाँ मैं नासमझ हूँ,

बचपन की में ललक हूँ।

मैं तो कच्ची मिटटी हूँ,

बेगाने अकार को निकली हूँ। 

हर रंग में ढल जाती हूँ,

हर नब्ज में मिल जाती हूँ।

अव्यवस्थित सा मैं साज हूँ,

असंगठित आगाज हूँ।

मैं खुद से बाते करती हूँ

बेहमतलब में मै हँसती हूँ। 

मुझे हर को सच्चा लगता है,

अंजान  भी अच्छा लगता है

हर चिंता से आजाद हूँ मैं

हाँ अभी तो बस शुरुआत हूँ मैं।

नादान सी उड़ान

नादान सी उड़ान पर
अंजान सी डगर पर,
युही चलता रहूँगा। 
कभी खुद में सिमटूंगा
कभी टूट के बिखरूँगा
बेनाम सी मंजिल को
यूँही फिरता रहूँगा।
ऑंठो पहर मन के सहर
न कोई फिकर न गम का जिकर
आत्मा को टटोलूंगा
भावनाओ के बोल बस बोलूंगा
 न रुकना है न थकना है
कल्पना के इस यान पर
अनवरत बढ़ता रहना है।
उमंगें जो मनके अंदर हैं
अनदेखी सी जो थिरकन है।
हाँ इनके साज पे डोलूँगा
ख्वाबो के साथ मैं जी लूँगा
हाँ मन ये मेरा पगला है
मदमस्त सी राह पे निकला है
बेमतलब छलांग लगता है
बस अनकहे बोल बताता है
बस यूँही ये उड़ता रहे
बस गिर गिर केे सम्हलता रहे।
ये आवारा सा बादल रहे
बेमौसम बरसता रहे।
             

बुधवार, 11 मार्च 2015

आशा का गीत

निराश नही हूँ मैं
आज के अँधेरे से कल आने वाली रौशनी
मुझे उत्सास देती है हाँ चल रहा हूँ अभी
कच्ची पगडंडियों पर सहमे कदमो से कल पक्की सड़क पर
दौड़ने की आशा लिए हाँ आज तपती धुप में रह लूँगा कुदरत के आछेप सह लूँगा जियूँगा रौब से
ये एहसास लिये कल एक आशियाना होगा
सिर छुपाने को
हाँ अभी मोहताज हूँ
छोटी छोटी खुशियों का हाँ कल में भी खुशियाँ बाटूंगा नही हैं अभी कोई चाहत शोहरत की शौकत की हाँ कल मैं राहत चाहूँगा
बिन रोक टोक बिन खट पट के
फिरूंगा मन का साज लिए।

मेरी कविता

सच्ची  की झूठी ना जाने कैसी हो 
लगती  हो  नादान सी,
हाँ हो थोड़ी अंजान सी
पर मुझको अपनी लगती हो। 
तुम मनचली,अल्हड़,मतवाली सी
थोड़ी पगली हो थोड़ी दीवानी सी। 
तोड़ के सारे बंधन
तुम अच्छी लगती हो बेलगाम सी। 
हया और बेबाकी तुम्हारे गहने है ,
है हर अदा में नयापन 
जो आकर्षित करता है। 
लिख  रहा  हूँ तुम्हे कैसे लिखू
हर शब्द मुझे तुम्हारी ओर खींचता है।
खेल रही हो मेरे हर लफ़्ज़ों से
जाने कैसी शरारत है,
ये फेरे तुम्हारी यादो के
ये तो बस मेरी आफत है।  

दिल की फसल

गेंहू की बालियों में,
चमक रही थी आँखे तेरी 
पक रही थी फसल मेरी चाहत की। 
बोया था एक-एक बीज 
रूहानी जज्बातों से,
सींचा था हर एक क्यारी को 
अंतर्मन की जलधारा से।  
वादियों के  दामन में 
महसूस किया तेरी खुशबू को
जहा हर फूल उपजा था 
दिल के आधारतल से।  
हाँ पाला है हर एक पौधे को 
आत्मीय संवेदना से।  
लाया था मिटटी मै
दिल की गहराइयो से।

आ रही है जिन्दगी

आ रही है जिन्दगी मेरी ओर
नए एहसासों के साथ।

उमंगो की नई पंखुडियो के
खिलने का आधार लिए।

मन के किसी कोने में दबे थे
कुछ सपने मनचली रातो के
इशारा दे रहा है समय
अब उन्हें सजाने का
कल्पना की सुनहरी रंगीन सी
उड़ान भरने जाने का।
शोर कर रही है हवाएँ अब
उड़ना है आसमान में।

निराशा के हर पल को
ढो रहा था सिद्दत से
के कही से तो आएंगी
किरणे आशाओं की।

हाँ हो सकता है ये
भावनाओं का फेर भी
फिर भी उठ तो रहे है
मुस्कुराहट के पंख अनेक
उल्लास की अमरबेल है
विश्वास के सहारे बढती हुई।
ले के सहारा आत्म-
-विश्वास की लताओं का
शिखर की ओर चढ़ती हुई

हाँ ये मौका है कुछ कर गुजरने का
कर्मठता के मानदंड गढ़ने का।

सोमवार, 9 मार्च 2015

अधूरी चाहत

फिर से अधूरी चाहत के
पन्ने पलट रहा हूँ।
कहना चाहता था तुमसे
पर लफ्ज़ ठिठक गए।

ख्वाबो की गहरी नदी में
फिर गोते लगा रहा हूँ
डूबना था तेरी आँखों में
पर आंखे छलक गईं।

झिझकता था मै तुमसे
तुम मुझसे कतराती थी
कह न सका कोई कुछ भी
अनसुनी आहें भरते रह गए।

तुम्हारी एक झलक के लिए
वो भोर में उठ जाना।
गुलाबी ठण्ड में नंगे पांव
छत पर पहुँच जाना।

तुम जब भी नजरें उठाई थी
मै नजरें झुका लेता था।
भावना के उन्माद को
अंतर्मन मै दबा लेता था।

तुम आये हो

पतझड़ के सुर्ख मौसम में फूल क्यों खिल रहे हैं
शायद तुम आये हो।

सूने सूने मन के आंगन में ये खिलखिलाहट कैसी
शायद तुम आये हो।

गुमसुम सी इस सुबह में ये कलरव कैसा
शायद तुम आये हो।

वीरान से इन रास्तो पर ये बहार कैसी
शायद तुम आये हो।

धुल खाते दिल के दर्पण में ये चेहरा कैसे
शायद तुम आये हो।

गर्म फिजाओं के घेरे में ये ताजगी कैसी
शायद तुम आये हो।

निर्वेद की इस बेला में खनखनाहट कैसी
शायद तुम आये हो।

बेजान से इस बुत में धड़कन कैसे
शायद तुम आये हो।

आज फिर चुन रहा हूँ मोती चाहत के
शायद तुम आये हो।

थमी थमी सी इक्षाएँ फिर से जीने लगी हैं
शायद तुम आये हो।

हाँ रुकने को थी सांसें बेमतलब सा था जीवन
आज फिर आधार मिला है
शायद तुम आये हो
शायद तुम आये हो।

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

शोर

ना जाने कैसा शोर है
जो मुझमें हर पल रहता है.
अनसुने अनजाने से,
कुछ लफ्ज उपजते रहते है.
नदी की जलधारा से
अनवरत बहते रहे हैं।
कुछ छूट गया है शायद मुझसे,
या कोई रूठा सा है.
ख्वाब तो कभी देखे नहीं मैंने,
फिर ना जाने क्या टूटा सा है।
कुछ लफ्ज कहने है 
कुछ सुनने है,
लफ्जो की ईंटे जोड़कर 
सपने कई बुनने है।
टूट गए हैंं कई रिश्ते 
रूठ गए है कई अपने.
जख्मो को भरना है 
दरख्तो हो सींचना है।
समय की धारा मोड़ कर 
सब मुमकिन करना है। 

भावनाओ के बहाव में
मैं बहता जा रहा हूँ।
मिल रहे है दर्द जो 
बस सहता जा राह हु.
जाने कब कोई आया 
और कैसे चला गया
हाँ कुछ तो है खाली सा,
हार के रह गया 
अब हर लम्हा है 
बस सवाली सा।

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

कौन है तू

कौन है तू जो मुझमें बसता है,
मेरी भावनाओ को टटोलकर 
ना जाने क्या कहता है।
बेरुखी में भी तू 
वफ़ा के रंग भरता है।
में कहता हूँ छोड़ दे,
ये वहम का बंधन थोड़ दे।
ना जाने क्यों तू 
शांत सा रहता है।
थामे रख तू डोर 
मुझसे हरपल कहता है।
मैं पर्दा डालता हूँ दिल पे,
तू उठा देता है।
मैं सम्हालता हूँ दिल को 
तू लूटा देता है।
में रोकता हूँ ये कदम 
तू बहका देता है।
में बांधता हूँ भावनाओ को 
तू जता देता है।
में मिलना चाहता हूँ सागर से 
तू राह मोड़ देता है।
में भागता हूँ मंजिल की ओर 
तू साथ छोड़ देता है।
तेरा होना मेरी राह की बाधा है ,
पर लगता है तेरा बिना सब आधा है।
हैं मुझमें ही तू मेरा हिस्सा है ,
औरों को क्या कहूँ 
ये मर्ज तो खुद का है। 


सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

अंतर्द्वंद

"खुद से खुद का चल रहा द्वन्द है।
 वर्तमान की भावनात्मक पूर्ति,
और भविष्य की मजबूत  जमीन
के बीच प्रतिद्वंद है।

एक ओर जिंदगी के हर छोटे-छोटे पल को,
खुल के जीने की चाह है, 
दूजी ओर जीवन को,
सफल साबित करने की राह है।

जीवन  का एक पलड़ा,
अब की संस्तुष्टि  की ओर  झुका है,
दूसरा,
आने वाले कल के निर्माण पर टिका है।

छणिक चाह और दूरगामी विश्वास की,
मजधार में,
झूल रहा है मन का शहर।

ढूंढ रहा है हर पहर अब,
राहत की लहर।

 एक ओर आत्म संस्तुष्टि है,
 दूसरी ओर खुद को साबित करने की वृत्ति है.
चिंतनीय के मसला,
सही कौन सी मनोदृष्टि है।


सत् पथ  क्या है,
पड़ाव कौन  सा है,
मन सार्थक है,
या मष्तिष्क,
आत्म सत्य है,
या परार्थ,
कशमकश में है,
हरपल।
मै सही है या हम "



शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

नयी उमंग

एक तरंग सी है मन में,
नयी उमंग सी है मन में।

बीते वक़्त की चंचलता ,अल्हड़ता
और अस्थिरता  को इतर कर,,
सुनहरे भविष्य निर्माण की चाह ,
प्रचंड है मन में।

नियत को बांधकर , शीरत को जानकर,
 अंतर्मन की विकृति को मानकर।
अपराध-बोध की आह,
का बंधन तोड़ ,,
सार्थकता की आवृत्ति असंख्य है मन में।

कोई कहता है जूठा सा, कभी लगता है टुटा सा ,,
थरथराता सा दम्भ है मन में।

मतलब के रिश्तो , फरेब के किस्सों,,
भावना के व्यंग-हाल से होकर मुकर
जीना है ऐसे की , ना हो कोई फिकर।

 संवेगात्मक अतिशियोक्ति , बेसुध अभिव्यक्ति,,
अनकहे सब्दो को जेहन में कर दफ़न।
मुस्कान की चादर ओढ़,
सवारना है जीवन को जिसका न हो कोई छोर।

कमजोर पड़ती उम्मीद, धुंधली  सी लकीर,,
हृदय की भरमाहाट का भान कर,
रिश्तो की मार्मिकता को जानकार,,
मजबूत कदमो से मंजिल की राहपर चलना है।


"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"

तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...