"सुनो एक कविता सांवली सी,
शाम का आवरण ओढ़े हुए,
विचरती हो वो खुशबू सी।
लता सी लटो को गुथे हुए,
वो निशा सुन्दरी श्यामली सी।
है लहराता आँचल पत्तो का,
पुष्प जड़ित चुनर है ।
प्रकृति का दामन थामे,
इठलाती सी वो अनुपम है।
वो निर्बन्ध हैं,अकथित हैं,
अथक प्रयत्नों के बाद भी,
शब्दो में अगठित हैं।
है उषा काल सा अम्बर उसका,
वो आधार पक्ष है नई सुबह का।"
शाम का आवरण ओढ़े हुए,
विचरती हो वो खुशबू सी।
लता सी लटो को गुथे हुए,
वो निशा सुन्दरी श्यामली सी।
है लहराता आँचल पत्तो का,
पुष्प जड़ित चुनर है ।
प्रकृति का दामन थामे,
इठलाती सी वो अनुपम है।
वो निर्बन्ध हैं,अकथित हैं,
अथक प्रयत्नों के बाद भी,
शब्दो में अगठित हैं।
है उषा काल सा अम्बर उसका,
वो आधार पक्ष है नई सुबह का।"
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