हाँ मैं नासमझ हूँ,
बचपन की में ललक हूँ।
मैं तो कच्ची मिटटी हूँ,
बेगाने अकार को निकली हूँ।
हर रंग में ढल जाती हूँ,हर नब्ज में मिल जाती हूँ।अव्यवस्थित सा मैं साज हूँ,असंगठित आगाज हूँ।मैं खुद से बाते करती हूँबेहमतलब में मै हँसती हूँ।मुझे हर को सच्चा लगता है,अंजान भी अच्छा लगता हैहर चिंता से आजाद हूँ मैंहाँ अभी तो बस शुरुआत हूँ मैं।
"चल अविनाश अब चलते है मन की उड़ान हम भरते हैं. बंद आँखों की बातो को,अल्हड़ से इरादों को, कोरे कागज पर उतारेंगे अंतर्मन को थामकर,बाते उसकी जानेंगे चल अविनाश अब चलते है मन की उड़ान हम भरते है"
गुरुवार, 12 मार्च 2015
नासमझ
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"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"
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