शनिवार, 23 दिसंबर 2017

तुम पहली बार रूठे थे सच में

 "सुर्ख लबों से,
  तीक्ष्ण शब्द,
  बरस पड़े थे,
  बरबस।

  आँखों में भी,
  मुखातिब हो रही थी,
  अनमनी और,
  बेरुखी सी।

  न जाने क्यों,
  ऐसा रुख,
  इख़्तियार किया था,
  तुमने।

  इतनी झुंझलाहट,
  इतने बेरुखात,
  पहली दफा थे।

  बेसवाल और,
  बेजवाब था मै।

  हाँ ये वहीँ दिन था,
  जब बहुत से,
  झूठे नखरो के बाद,
  तुम पहली बार,
  रूठे थे सच में।

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

कैसा ये द्वैतभाव है

नींदे बेचैन हो गईं हैं,
कसक सी उठी है।
बलखा रहीं हैं साँसे,
लहर सी उठी है। "

राहें टेढ़ी-मेढ़ी हैं,
कदम यहाँ-वहाँ हैं।
आँखों में मद सा है,
जर्रा-जर्रा बहका है।

कुछ ढल रहा है,
या कुछ उभर रहा है।
कुछ टुटा है,
या कुछ जुड़ रहा है।

पतझड़ है या बहार है,
संभावनाएँ तो अपार हैं।
मातम है या त्योहार हैं,
पुचकार है या दुत्कार है।

उदय है या अस्त है,
अंगड़ाई है या जम्हाई हैं।
वात्सल्य है या रुसवाई है,
मिलन हैं या जुदाई हैं।

कैसा ये द्वैतभाव है,
प्राप्ति है के आभाव है।
उलझा है ये मसला,
ये क्या है ये कैसा है।

गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

"फिर याद किया है तुमने,पतझड़ में"

फिर याद किया है तुमने,पतझड़ में,
फिर बहार रूठ गई क्या बागों से?
फिर टूट गए हो क्या किसी ठोकर से?
फिर भटक रहे हो निरीह प्यासे से?

फिर याद किया है तुमने,पतझड़ में,
फिर बहार रूठ गयी क्या बागों से?

अब मैं कोई अथाह समुद्र नही।
अब मैं कोई सदाबहार वन नही।
अब जर्द भरा एक आँगन हूँ।
अब गर्द से धूसरित चौखट हूँ।

क्यों याद किया तुमने पतझड़ में?
अब कैसे लाऊं बसंत मै।
सब कैसे करूँ जीवंत मै।
जलहीन पड़ी एक धारा हूँ,
अब कैसे सींचू पौधों को।
अब कैसे खिलाऊँ फूल मै।
अब कैसे सजाऊँ बागों को।

फिर याद किया तुमने पतझड़ में।
फिर बहार रूठ गई क्या बागों से।

~ अविनाश कुमार तिवारी

मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

उम्मीदों का आसमान

अपनी उम्मीदों एक आसमान सबका होता है। वो उम्मीदें कभी रातों में  ख्वाबों में ढल जाती हैं .... कभी दिन की बेताबी में उतर जातीं हैं।  उम्मीदों के तारे कभी टूट कर गिरते हैं..... तो कभी ओझल हो जाते हैं अमावस्या  के कारण। अनंत होता है उम्मीदों का ये आसमान जिसके छोरो को नापना नापना संभव नहीं होता। इसमें बहुत सी उम्मीदों आकाशीय  पिण्ड बनकर उभरती और उजडती रहती हैं। कुछ उम्मीदें पूरी न होकर बौने ग्रह की तरह,
गतिमान रहती हैं। पूरी होने वाली उम्मीदों चमक जाती हैं ध्रुव तारें की तरह। सब पूरी करना चाहते हैं अपनी उम्मीदें कुछ लोग औरों की उम्मीदें बनते हैं,कुछ उनको पूर्ण करते हैं,कुछ उम्मीदों साझा रहती हैं कई लोगो में।
यहीं हैं जिनपर मानव का संसार कायम है। मानव उम्मीद लगाता भी हैं,उम्मीदें पूरी भी करता है,उम्मीदें तोड़ता भी है। मै अपनी उम्मीदों लेकर चलता हूँ...... तुम अपनी उम्मीदें लेकर चलो.......  और कुछ उम्मीदों हमारी हो जाएँगी एकदिन।

गुरुवार, 23 नवंबर 2017

भारत के प्राचीन इतिहास के पन्नो से मेरा व्यक्तिगत नजरिया

इतिहास के पन्नो पर किसी को मिलने वाली जगह का  निर्धारण - अभिलेखों(शिलाओं,चट्टानों,स्तंभों,धातुपत्रों,हाथी दांत,स्तूपों पर अंकित लेखो जो उक्त समय की लिपि में लिखे गये हों) की संख्या,उनमे लिखे हुए उद्धरण,
तात्कालीन समय में प्राप्त सिक्को की संख्या, उनमे उपयोग की गयी धातु, उनमें दर्ज उपाधियाँ,  तत्कालीन समय की प्राप्त स्मारक, विहार,अध्यन केंद्र,तत्कालीन समय को किसी स्थान विशेष को देखने का विदेशी यात्रियों का दर्शन(देखने का नजरिया), तत्कालीन समय पर लिखी गयीं पुस्तकें,जीवनियाँ आदि सम्मलित रूप से करते थे।

जब हम बहुत जादा पीछे जाते हैं तो सिन्धु घाटी सभ्यता से प्राप्त चाह नगर महत्वपूर्ण थे और उनमे सबसे जादा महत्वपूर्ण था मोहनजोदड़ो क्युकी वहां से ही सिन्धु घटी सभ्यता की उन्नत नगर योजना जो आज के मेट्रो शहरों से भी जादा अच्छी थी। विशाल स्नानागार सभाभवन आदि मिले हैं....... दूसरी और चंदुहडो,कालीबंगा,बनवाली आदि नगरों की अच्छे से खुदाई ही नहीं की गयीं।  मतलब सबकुछ बहुत हद तक  इतिहास कारो के रवैये पर निर्भर था।
 
फिर जब जरा आगे बढ़ते हैं तो मोरी वंश के चन्द्रगुप्त मोर्य, और गुप्तवंश के समुद्रगुप्त तुलनात्मक रूप से अशोक से बड़े विजेता और रणनीतिकार और प्रशासक थे। किन्तु उनसे जादा ख्याति अशोक को प्राप्त हुई.. कारण सीधा सा है दूर-दूर तक फैले अशोक के अभिलेख जिनकी संख्या सर्वाधिक 200 हैं। जिसमें उसने काफी कुछ लिखवाया है और वहीँ उसकी महानता का मुख्य निर्धारक तत्व हैं। 

बात की जाए सिक्को की तो पुराने समय में अब की तरह संकेत मुद्रा का प्रचलन होकर धातु की मुद्राओं  का सीधा प्रचलन था। सिक्को की संख्या और उनके लिये उपयोग की गयी धातु यह बताती थी की राज्य कितना महत्वपूर्ण है.,क्युकी प्राचीन समय में सिक्को का प्रयोग राजा के वैभव का निर्धारण करता था। सोने के सिक्को को चलाना राज को इतिहास में अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करवा देता था। सातवाहन,चेर,पांडय,शक,पल्लव आदि राजवंशो का तो पूरा इतहास ही सिक्को पर निर्भर हैं तत्कालीन समय में और भी छोटे छोटे राज्य थे लेकिन ये बाजी मार ले गये क्यूंकि इनके सिक्के अधिक से अधिक मात्र में प्राप्त हुए हैं। 

अब बात की जाए स्मारकों की तो उसका भी अनुपम उदाहरण  मोहनजोदडो और गुप्त वंश के राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय(विक्रमादित्य) हैं क्युकी विक्रमादिय के समय की ही स्थापत्य कला के सबसे अधिक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

बात लिखित साहित्य की बात की जाए तो अगर कालिदास(अभिज्ञानसाकुन्तलम,मालविकाग्निमित्र) चाणक्य(अर्थशास्त्र) को छोड़ दिया जाय तो हमारा इतिहास पूरी तरह से बाहर से आय यात्रियों के नजरिये और लेखो पुस्तको पर निर्भर है। मेगास्थनीज,व्हेनसांग,फाह्यान,इत्सिंग अदि के वृतांत हमें हमारा इतिहास बताते हैं।
मेगास्थनीज ने इंडिका लिखकर मोर्यकाल को बताया। ह्वेनसांग जिसको यात्रियों के राजा की संज्ञा दी जाती हैं,
कन्नौज के हर्ष जो बहुत महत्वपूर्ण राजा नहीं उन्हें इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान इस यात्री के यात्रा वृतांत ने दिलवा दिया।

हमारा भारत का तो अधिकतर बस विदेशियों के बताये गये और लिखे पर निर्भर रहा है ठीकठाक कहा भी नहीं जा सकता कितना सही है कितना गलत।  हो सकता है इतिहास में कुछ और,कोई और अधिक महत्वपूर्ण हो लेकिन उनके बारे में जादा कुछ मिला न हो या इतिहासकारों ने जानना या बताना अधिक जरुरी न समझा हो।

मंगलवार, 14 नवंबर 2017

पत्नी और ताश की गड्डी

मैंने बहुत सी अधूरी कहानियां लिखीं हैं जो एक मोड़ पर रुक जाती हैं।  जब मेरी कलम भी थककर आगे चलने से मना कर देती है। मस्तिष्क भी शुन्य को ग्रहण कर शांत बैठ जाता हैं।  क्या ये भी उन्ही कहानियों का फेहरिस्त का एक हिस्सा है??????? या ये पूर्णता को प्राप्त करने वाली कुछ थोड़ी सी कहानियों की दीर्घा में बैठेगी???

ये कहानी है सुमन और रितेश की......
                अभी दो दिन ही हुए थे मुझे नए घर में शिफ्ट हुए  तभी बेडरूम में बनी एक छोटी सी कोठी खोलने पर मुझे एक डायरी मिलीं। काफी धुल पड़ी हुई थी उसपर,कवर पर किसी का नाम नहीं था.. डायरी खोलने पर प्रथम पृष्ठ पर अलग अलग भावों को प्रदर्शित करते हुए छोटे छोटे स्माइली चिपके हुए मिले। डायरी पर किसी का नाम न मिलना अजीब था। कौतुहल के साथ मैंने अगला पृष्ठ खोला काफी कुछ लिखा और  पढना शुरू किया-
                                       "मै बालकनी से देखती रहती हूँ साम को जब तुम घर वापस आते हुए नजर आते हो तब मै बाहर के गेट का लॉक खुला छोड़कर जानबूझकर मै अन्दर जाकर सो जाती हूँ। ......तुम्हारा आकर मुझे बड़े आराम से उठने को कहना उसके बाद जमकर डाँटना मुझे अच्छा लगता है।  रविवार का वो एक दिन ही मिलता है जिसदिन तुम थक कर घर नहीं आते,,वहीँ सोच कर मै हर हप्ते जिद करतीं हूँ साथ में घुमने जाने की... और हर बार तुम डाँट कर  मना कर देते हो। तुम्हारी बेरुखी के बीच भी  मै स्नेह ढूँढ लेती हूँ।
शाम को मुझे उठाते समय मेरी बालों पर हल्कें हल्कें तुम्हारा हाथ फेरना भी महसूस होता है मुझे। मुझे डाँट कर मना करने के बाद घर के कामों में मेरा हाथ बटाने की कोशिशें भी दर्ज हैं मेरी आँखों में।"
                       इन्ही सब बातों में  साथ एक पृष्ठ खत्म हुआ। और मैंने अगला पन्ना पढना शुरू किया जिसमें बस एक छोटा सा पैराग्राफ लिखा हुआ था -
                     "अब तुम जल्दी घर नहीं लौटते। अब लौटने लगे हो आधी रात को जब मुझे सच में नींद आ रही होती है पर मै जागतीं हूँ ,तुम्हे खाना खिलाने के लिये। अब रोज तुम खाना खाय बिना सो जाते हों। न जाने क्या हुआ है ऐसा की सबकुछ बदल गया है।"
                                   मै भी अचंभित था दो पन्नो की दूरी के बीच इतना सब कुछ कैसे बदल गया।
खुद को सुमन की जगह रखकर सोचते हुए। अगला पन्ना खोला मैंने-
                 "आज फोन आया था तुम्हारे सीनियर विश्वकर्मा अंकल की पत्नी जी का उन्होंने बताया अंकल ने तुम्हे कुछ लोगो को साथ  वहां देखा था जहाँ अक्सर नसेड़ी और जुवारी महफ़िल जमाया करतें हैं। तब मेरे दिमाग की परतें खुलने लगीं। कुछ दिन पहले जब तुम्हारा पुराना दोस्त विवेक काफी दिनों बाद मिलने आया था तुमसे उसके बाद से ही तुम देर रात घर लौटने लगे शायद उसी अड्डे पर जाते हो तुम इतने दिनों से। तुम हर रोज टाल जाते हो मेरे सवालों को मगर आज पूछुंगी तुमसे। क्या वहीँ जातें हो तुम हर शाम? क्यूँ जाते हो तुम वहां? "
         सुमन के सवालों को जेहन में रखते हुए। अगला पृष्ठ खोला मैंने-
                 "आखिर बता ही दी तुमने मुझे मेरी जगह। ताश गड्डी ,शराब के पैग और इनके साथ  तुम्हारा साथ देने वाले दोस्त जादा मायने रखते हैं तुम्हारे लिये तुम्हे मेरा तुम्हे छोड़कर जाना भी मंजूर पर इन्हें छोड़ना नहीं। आखिर क्या है ऐसा इनमे। मै भी अब घुट-घुट कर नहीं जी सकती तुम्हारे साथ इस अधूरी सी जिन्दगी को कड़ा फैसला लेना पड़ेगा अब मुझे  भी। "
सच में एक कड़े फैसले की चाह लिये मैंने अगला पृष्ठ खोला -
               "बहुत हो गया कहना सुनना अब जा रही मै दूर तुमसे।  घुटन भरे साथ से अच्छा है दूर हो जाना। हो सकता है तुम्हे महसूस हो मेरी कमी। बुलाना चाहो तुम वापस मुझे लेकिन नहीं आउंगी मै अब। मै बस तुम्ही पे निर्भर नहीं, काबिलियत है मुझमें की अपनी दुनिया खुद बसा सकूँ। "
                                                बस इन्ही कुछ पृष्ठों में छोटे छोटे पैराग्राफ के साथ खत्म हो गयी डायरी और सवाल छोड़ गयी मेरे जेहन में की आखिर कहाँ गयीं इसे लिखने वाली सुमन?? कहाँ गया उसका पति रितेश????? ये डायरी यहाँ क्यूँ रह गयीं???
                                                नाम भी नहीं लिखा इस डायरी में किसी का सुमन और रितेश ये दो नाम भी मैंने ही दे दिए दोनों किरदारों को।





मंगलवार, 17 अक्तूबर 2017

तीन वर्ष पीछे : एक किस्सा

नींद की कश्ती में बैठकर जब सपनो की नदी से गुजर रहा था,तब किनारो पर खड़े चंदन के पेड़ों में तुम्हारी खुशबू ढूंढ रहा था, गुलमोहर और पलाश के फूलों में तुम्हारे रंग को तलाश रहा था।

तभी लाइट कट गयी और पंखा बन्द हुआ फिर मेरी नींद भी खुल गयी और ख्वाब भी टूट गया।

फिर खुली आँखों मे यादों की गलियों से गुजरता हुआ समय मे तीन वर्ष पीछे चला गया।

मध्यप्रदेश का अनूपपुर शहर था वो वहाँ पहली बार गया था मैं राज्य लोकसेवा आयोग की परीक्षा देने,
दो पालियों में थी परीक्षा।
परीक्षा केंद्र से कुछ ही दूरी पर एक नदी थी। प्रथम पाली कि परीक्षा के लिये जब मैं कक्ष में बैठा तो अपनी आदत के अनुसार  एक दो बार नजरें घुमाकर एकबार कमरे में बैठे सारे परीक्षार्थियों पर नजर घुमाई । 30 लोगो मे से 2 अनुपस्थित थे। तभी मेरी उस पर पड़ी घुँघराले खुले बालों वाली एक लड़की जिसने अपने लाल रंग का सूट भी ऐसे पहना था जैसे प्रेस न किया गया हो मैं भी अपने कपड़े प्रेस नही करता। प्रथम पाली की परीक्षा के दौरान दर्जनों बार मैंने उसपर नजरें घुमाई जैसे सम्मोहित सा हो गया था। प्रथम पाली की परीक्षा खत्म होने के बाद मैं अपने दोस्त से बात कर रहा था और सभी की भीड़ के बीच वो कहाँ गुम हो गयी पता नही चला।
दूसरी पाली में 2 घण्टों का समय शेष था ज्यादा धूप थी नही इसलिए सभी परीक्षार्थी नदी के किनारे जाकर चट्टानों पर बैठ गए। मैंने भी अपना डेरा वहीं बना लिया
वहाँ बैठे बैठे भी मेरी नजरें बार बार उस लड़की को ढूंढ रहीं थीं। तभी वो घाट पर उतरती हुई नजर आई एकदम रूखापन था चेहरे पर अजीब सा जैसे किसी से गुस्सा जो।मेरी नजर इसके जूतों पर गयी स्पोर्ट्स सूज पहने हुए थे उसने जो ये कह रहे थे की ये लड़की कुछ अलग ही है
उन 2 घंटो में मैं लगातार उसे देखता रहा। यही सिलसिला दूसरी पाली की परीक्षा में भी चला। जाते वक्त मैं एकबार उसके पास से गुजरा बहुत अच्छी खुशबू थी जो उसके बालों से आ रही थी।
कुछ अस्त व्यस्त आ सूट , बिखरे बाल, स्पोर्ट सूज, रूखा सा अंदाज ये सब मेरे जेहन में बैठ गये औऱ वो झल्ली सी लड़की भी।
पर चाहते न चाहते मुझे रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ना पड़ा।। लेकिन जाते जाते वो कैद सी हो गयी मेरे जेहन में।

"भीड़ के बीच औऱ रास्ते में किसी को देखना और उससे मिल जाना वास्तविकता नही है। वास्तविकता है किसी से आकर्षित होना पर फिर आगे अपने रास्ते पर बढ़ जाना। हाँ कुछ यादें जरूर साथ आ सकतीं हैं।"

गुरुवार, 28 सितंबर 2017

इकोफ्रेंडली

पहला पक्ष :रोहन ने अपने 4 दोस्तों के साथ 5 जून को शहर के एक हरे भरे पार्क में एक पौधा लगाया और फोटो खिंचा कर अपने फेसबुक वाल,इंस्टाग्राम और व्हाट्सअप ग्रुप्स में डालकर सभी को पर्यावरण दिवस की शुभकामनाएँ दीं. और साथ ही साथ एक फोटो पेपर में भी छपवा दी...........सबने बहुत सराहना ही उनके इस कार्य की।
दूसरा पक्ष: सभी मित्र अपनी धुँवा उड़ाने वाली  बाइक्स में निकल गए एक तालाब के किनारे बैठ कर दारु और चखने वाली  पार्टी की। ..कचड़ा उसी तालाब में  फेंका रूम आकर ऊँची आवाज में बूफर  में गाना चलाया और एसी में सो गए...

"प्रदर्शित करने और जीवनशैली  में उतारने में बहुत फर्क होता है"  

हरे भरे पौधों से लदे  पार्क में पौधा लगाकर फिर....  धुवाँ  उड़ाकर ,एसी चलाकर हवा  प्रदूषित की। तालाब में कचड़ा  फेकर जल प्रदूषित किया।  फिर ऊँची आवाज में म्यूजिक बजाकर ध्वनि प्रदुषण फैलाने के बाद।  
आपको इकोफ्रेंडली  कहना मूर्खता होगी।              


शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

बाकि वो है

बाकि  वो है,जो सामने नहीं आया।
बाकि वो है ,जो शब्दों में अभिव्यक्त नहीं हुआ।
बाकि वो है , जो तोड़ नहीं पाया बंदिश होंठो की।

वो गतिविधियाँ बाकि हैं , जिन्हें काट दिया जाता है प्रदर्शन के पूर्व।
वो पन्ने बाकि हैं, जिन्हें हटा दिया जाता है प्रकाशन के पूर्व।
वो कहना बाकि हैं,जो दब गया होहल्ले में।

बाकि वो है, जिससे आकर्षक दिखावा नहीं हो पाता।
बाकि वो है, जिससे राजनितिक स्वार्थ नहीं पूरा होता।
बाकि वो है, जिसे समाज सुनना नहीं चाहता।

जो बाकि रह गया है,वो दिखाना चाहता हूँ।
जो बाकि रह गया है,वो लिखना चाहता हूँ।
जो बाकि रह गया है, वो कहना चाहता हूँ।

मंगलवार, 19 सितंबर 2017

कंधो का बोझ

पार्क की एक बेंच पर अपनी धर्मपत्नी के साथ बैठे शर्मा जी आज अपने कंधो को कुछ जादा भारी महसूस कर रहे थे। हालाँकि वो उम्र के उस पड़ाव पर थे जहाँ बहुत सी जिम्मेदारियों से मुक्ति मिल जाती है और कंधो का बोझ बहुत हद तक कम भी हो जाता है.लेकिन उनके कंधो पर इतना बोझ क्यों था??

दर असल वो दम्पत्ति एक मुंबई में नशा मुक्ति केंद्र के पास के पार्क में बैठे हुए थे जहाँ उनका 28 वर्षीय पुत्र वरुण भर्ती था।
कुशाग्र बुद्धि और बहुमुखी प्रतिभा का धनी था वरुण। 7 पूर्व  आईआईटी  की परीक्षा पास करने के बाद मुम्बई आईआईटी में प्रवेश मिल गया था। बहुत ख़ुशी के साथ मुंबई  विदा किया था शर्मा दंपत्ति ने बेटे को की 5-6 सालो बाद उसे बैड मल्टी नेशनल  कम्पनी में बड़े अफसर के रूप में पाकर गर्व करेंगे।  पहले वर्ष में ही आकर्षक व्यक्तित्व का धनी वरुण सबका चहेता बन गया। कॉलेज के तीसरे वर्ष में उसकी दोस्ती रेहान से हुई, कुछ दिनों बाद वो रेहान के मित्रो से भी दरअसल वो 10-12 लड़के लड़कियों का समूह था जो सुकून पाने के लिए नशे का सहारा लेते थे। ऐसा कोई नशा नहीं था जो वो लोग न करतें हों।  अपने समूह का नाम उन्होंने "घेट्टो" रखा था उनके अनुसार उनके इस नाम का अर्थ था "समाज से घृणा" ये लोग समाज से उकताया हुआ महसूस करते थे स्वयं को और अपनी ही दुनिया में रहकर मात्र नशे को अपना साथी मानते थे ।साथ ही साथ बाहर से आय नए लड़के लड़कियों को अपने समूह हा हिस्सा बना लेते थे। कुछ दिनों में वरुण उनके समूह का हिस्सा बन ही गया।
वो भी इनके तमाम कृत्यों में बराबर का साझेदार बन गया।  उसके घर जाने पर उसके माता - पिता ने उसके चेहरे को तेज को उतरा हुआ महसूस भी किया लेकिन बाहर रहने का असर होगा सोचकर बात को टाल भी दिया। इसी बीच वरुण की दोस्ती नायरा से हुई जो की उसी घेट्टो समूह का हिस्सा थी। बातें आगे बढ़ी और दोनों के बीच प्यार भी पनप गया। कॉलेज खत्म होने का बाद वरुण का चयन जल्द ही एक बड़ी आईटी  कंपनी में हो गया.  इसके बाद वो नायरा के सह लिव इन रिलेसनशिप में रहने लगा। इसी बीच उनका समूह नशे में मस्त था और उन्हें पुलिस का रेड का सामना करना पड़ा। हालाँकि वो जमानत पर छुट गए किन्तु बदनामी भी हुई और साथ ही साथ वरुण को अपनी जॉब से भी हाथ धोना पड़ा। भविष्य में पैसो के आभाव के कारण नशे के आदि हो चुके वरुण और नायरा अपनी जरुरतो को पूरा करें में असमर्थ थे। नशे की प्यास न बुझने के कारण नायरा ने समुन्द्र में डुबकी लगाकर आत्महत्या कर लीं इसके बाद बात शर्मा दम्पत्ति तक पहुँचने में देर नहीं लगी। और 2 दिनों बाद सीओ मुंबई पहुँचे तबतक एक समाजसेवी संस्था का माध्यम से उनका बेटा वरुण एक नशा मुक्ति केंद्र में भर्ती था।  उसे देखने का बाद भारी कंधे के साथ शर्मा दंपत्ति बैठे हुए थे उस बेंच पर बेटे की स्वस्थता की कामना लिए।
शर्मा जी कह रहे थे - " कितनो घरो को खाता है ये नशा, कितने भविष्यों को गर्त में डालता है,ये कैसा सुकून है जो जीवन तबाह कर जाता है "
जिम्मेदारियों के बोझ से छुटने के इस समय मे आज उन्हें और जादा बढ़ा हुआ महसूस कर रहा हूँ , कितने बोझिल हो गयें हैं कंधे मेरे। "

रविवार, 6 अगस्त 2017

अंतिम वृक्ष का आखरी सुखा पत्ता

"जब पहली दफा रूठे थे तुम,
 एक दरार सी उभर पड़ी थी इस जमीन पर।
 रुठते गए तुम और दरारे उपजती गईं फिर बंजर हो चली जमीन।
 उस जमीन के अंतिम वृक्ष के आखरी सूखे पत्ते सा हूँ मै ......
मेरी मंजिल तो शाख से टूटकर गिरना और खाक हो जाना है......
झेल रहा हूँ तपिश अभी  ,मगर थोड़ी सी नमी बाकि है मुझमें।   
न जाने क्यूँ लगता है कोई थाम लेगा मुझे हाथो में अपने।
फिजाएँ अब कुछ अधिक गर्म हो चलीं हैं अब,
रफ़्तार भी तेज है उनकी,
थपेड़े भी जरा जोर के हैं इनके।

क्या आ रहे हो मुझे थामने तुम?
या छोड़ दूँ मै शाख का दामन और बिखर जाऊं जमीन पर??

                          "अगर आओगे तो वो नमी ले आना थोड़ी।।।।।।।।।। वो जो तुम्हारे आने पर मेरी आँखों में उतर जाती है। और झट से सारे जख्मो को भर जाती है।

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

अंतिम खामोशी

याद है मुझे वो लम्हा जब मैंने अंतिम बार तुम्हारी खामोशी को पढ़ा थापहली और अंतिम बार गलती कि थी मैंने तुम्हारे मौन को पढ़ने में। 
तुम्हारा खामोश हो जाना तुम्हारी अदा भी थी और मेरी कमजोरी भी। जब-जब तुमने खामोशी को चुना था। न जाने क्यों तुम पर मेरा प्यार थोड़ा ज्यादा उमड़ पड़ता था। मुझसे खफा होती थी तभी खामोश होती थी तुम, तुम्हे ख़फ़ा करना मेरी फितरत तो नही थी लेकिन तुम्हारा खामोश होना कुछ ज्यादा प्यारा लगता था मुझे। मै कई दफे जानबूझकर तुम्हे खफा किया करता था। क्यूँकी तुम जब खामोश होकर मुँह फुलाकर बैठ जाती थी,तब  तुम्हारी खूबसूरती की आभा और बढ़ जाती थी। गुस्से से भरे हुए चेहरे के बीच तुम्हारी आँखे में देखा था मैंने उस प्यार को जो तुम व्यक्त नही करती थी। ये मेरी किस्मत थी कि कभी आँसूं नही आए तुम्हारी आँखों मे, बस वो प्यारा सा गुस्सा ही झलकता था। 
जब अंतिम बार खामोश हुई थी  तुम तब न तुम्हारा चेहरा हर दफा जैसा था, न तुम्हारी ऑंखें मैं उस समय पढ़ पाया। उस बार तुम्हे खफा भी नही किया था मैंनेमुझे भान नही था कि वो खामोशी अंतिम थी। 
 हाँ अब भी खामोश होती हो तुम किन्तु बस ख्वाबो में। अब  ये ख्वाबों में आने का सिलसिला बन्द न करना कभी तुम।

शीर्षक रहित

"खत्म हो गया कालापानी तुम्हारा,
के अब भी फिर रहे हो मारे-मारे।
क्यों डूबे इतनी गहराई में,
जब मंजिल क्या रास्ते मे ओझल थे।
वो सागर इश्क़ का था,
जहाँ चहूँ ओर गुलाबी घेरा होता है,
उसमे फँसा हर इंसान,
बस इश्क़ की वेदी का एक फेरा होता है।
सुनो न इश्क़ मुकम्मल होगा,
न भटकना थमेगा दरबदर।
मैं तो कहता हूं धर लो वैराग्य,
हो जायेगा सारा तिलिस्म बेअसर। "

शनिवार, 22 जुलाई 2017

सकारात्मकता और नकारात्मकता तथा सफलता व असफलता : विमर्श

सकारात्मकता और नकारात्मकता के मध्य के एक महीन सी ही रेखा होती है,जिसके एक ओर सकारात्मकता होती है दूसरी ऒर नकारात्मकता
कुछ संज्ञानो को माध्यम से ये स्पष्ट करना चाहूँगा... 
एक दार्शनिक अवधारणा है #परमानन्द जिसके अंतर्गत ये माना जाता है की जब मनुष्य इतना सकरात्मक हो जाता है उसको न सुख और दुःख की अनुभति नहीं रह जाती है , हर स्थिति में वह एक सकरात्मक आनंद से अभिभूत रहता है.....दूसरी और आज के विध्वंसक उत्तर आधुनिक युग की एक मनोवैज्ञानिक समस्या है #अवसाद(डिप्रेसन) जिसका एक लक्षण यह है कि व्यक्ति न तो किसी बात में सुख का अनुभव करता है न ही किसी बात में दुःख का किन्तु यह स्थिति उस पर नकारात्मक भावना के प्रसार के कारण आती है .....इस प्रकार इन दोनों सकारात्मक और नकारात्मक अवधारणाओ का लक्षण लगभग एक सा है अंतर बस एक महीन सा है की एक स्थिति सकारात्मकता के संचार के कारण आई है तो दूसरी नकारात्मकता के संचार के कारण......ठीक ऐसी ही महीन सी रेखा सफलता और असफलता के बीच भी निर्मित होती है.. हम अपनी उन कमियों को दूर करके सफल हो सकते है जिनके फलस्वरूप हमें असफलता प्राप्त हुइ है और हम उनको खूबियों को बुझ कर सफल भी हो सकते है जो हमे मजबूती प्रदान करतीं हैं ...................परिस्थितिया भी प्रभावित करती है किन्तु सफलता और असफलता के बीच अंतर सिर्फ उन कारको का है जो व्यक्ति को आगे बढाते है या वो जो व्यक्ति हो पीछे करते है बस आवश्यकता है उन्हें पहचानने कि और तदनुसार आवश्यक प्रयत्नों को करने की.... 
#निष्कर्षतः हमें हारने या असफल होने पर निराश होने की आवश्यकता नहीं है , आवश्यक ये है की हम हार - जीत और सफलता-असफलता के बीच की उस महीन रेखा को समझकर उस आवश्यक कृत्य को सम्पादित कर ले जो हमारी सफलता और असफलता को सुनिश्चित करता है.

मंगलवार, 4 जुलाई 2017

अधूरी कहानी

"
कुछ कहानियां बिखरी हुई है जो अधूरी हैं।  एक कहानी मेरी है,जो पूरी होने की बाँट जोह रही है।
                         कुछ पन्नो पर शब्द अधिक उभरे हुए हैं,चमक बिखेर रही है उनमे विस्तृत चटक रंग की स्याही।
हाँ ये वही पन्ने हैं जिनमे सफलताओं को लिखा था। जिनमे वो स्याही बिखरी है जिनसे उपलब्धियों पर हर्षाया था।
                          कुछ अधजले से पन्ने दिख रहे हैं, वीभत्स सी लाल स्याही से जिनमे शब्द उकेरे हुए हैं। ये वो उपेक्षित पन्ने हैं जिनमे असफलताओं कि फेहरिस्त पड़ी हुई है ,कुछ जगजाहिर कुछ सिमित हैं स्वयं तक।
                          धुंधली स्याही से परिपूर्ण ,कही-कही से फटे हुए कुछ अधूरे पृष्ठ भी हैं। इनमे कुछ अधूरे सपने,कुछ अनकहे जज्बात लिखे हुए हैं।
                                                       यही कहानी का अधुरा हिस्सा है,जो पूरा होना चाहता है। हाँ कोई कहानी शुरू होती है तो पूरी जरुर होती है। ये भी पूरी होगी कभी किसी दिन और दरख्ते भर जाएँगे।" 

सोमवार, 3 जुलाई 2017

स्नेह बेच लेता हूँ

चलो आज स्नेह बेच लेता हूँ,
बेशकीमती हैं जो वो प्रेम बेच लेता हूँ।
तुम मेरे अपनत्व को तौलना,
मै तुम्हारा मोह माप लेता हूँ।
तुम सुनना मेरी बातो को मन लगाकर,
बदले में हर पल मै तुम्हे सोच लेता हूँ।
प्रेम को स्वार्थ से ,स्वार्थ को प्रेम से खरीद लेता हूँ,

जो तुम्हे भाता हो बस वो ही कह कर 
सच को अपने जहन में ही भींच लेता हूँ।
दिखावे  के बंधन में तुम्हे बांधकर,
संबंध बेमन का तुमसे माँग लेता हूँ।
जब कोई न मिले तब मुझे पुकारना,
मै खाली समय तुम संग बीता लेता हूँ।

छोड़ो बाते निःस्वार्थाता कि,
मत करना सच्चे प्यार की खोंखली बातेें,
फरेब है सब,झूठा ये सारा अफसाना है,
न रहा कोई रांझणा,न कोई दीवाना है।
हो जाओ मतलबी,
आंक लो कीमत संबंधो कि,
करो सौदेबाजी,
भावनाओ और सपनो की।

शुक्रवार, 16 जून 2017

अंतिम हो

"उफन रही है नदी फिर, उफान ये अंतिम हो। 
उभर रहे हैं भाव फिर, उभार ये अंतिम हो। 
उपज रहे हैं विचार फिर,उत्पाद ये अंतिम हो। 
ठिठक रहे हैं कदम फिर, पड़ाव ये अंतिम हो।   
पहुँच गये हैं शिखर पर,उछाल ये अंतिम हो। 
उड़ रहे हैं छितिज पर,उड़ान ये अंतिम हो।
अंतिम हो झमेले सारे,शुरुवात अब नवीनतम हो। "

सोमवार, 22 मई 2017

तुम्हारे लिए

"विस्तृत हो तुम,
मन के व्योम में,
प्राणवायु की तरह।
उपस्थति हो प्रति-छण,
हृदय स्पंदन में।
लब्धता है तुम्हारी,
मन के हर कोने में।
सृष्टि है तुमसे ही,
इन विचारों की,
हर आवृत्ति में तुम ही हों।
मेरा तो आतिथ्य है बस,
इस ह्रदय में ,
घर ये तुम्हारा है।
अस्त्तिव हैं इसका,
तुम्हारी विद्यमानता से,
और अपूर्ण हैं ये,
तुम्हारी अनुपस्थिति से। "

रविवार, 21 मई 2017

क्षमताओं को उभारना होगा

कुशलताएँ
रह जाती हैं ,
छिपी हुई,
कमियाँ   उजागर हो जाती हैं।
हम भेंट  नहीं  कर पाते छमताओं से ,
हो जाते हैं अभ्यस्त  परिस्थितियों के।
 नैसर्गिकता  रह जाती  हैं अंतर्मुखी,
 बहुमुखी  बनावटों की चादर में।
उभार  भी आया कभी,
तो दब जाता हैं,
आभाव में आत्मविश्वास के।

               "क्षमताओं  को उभारना होगा, 
                 विफलताओं को डिगाना  होगा। 
                 मिलेगी पहचान कुशलता को, 
                 आत्मविश्वास को जगाना होगा।"

शुक्रवार, 19 मई 2017

उड़ना है मुझे


रास्ता

"हम भटकते भी खुद में हैं, 
और सही रास्ता भी हम में ही समाहित हैं।  
किन्तु गलत रास्ते जब जादा उभरकर आ जाते हैं, 
तो बस भटकने का दौर सा चल पड़ता है। "
 ये निर्भर करता है हमारे चुनाव पर,की हमने कौन सा रास्ता चुना हैं। 
उस पाषाण के जैसा, जो अपना रास्ता कभी नहीं बदलता भले ही एक जगह आकर स्थिर क्यों न हो जाए।  
या फिर उस  मोर पंख के जैसा, जो स्वयं को वायु के प्रभाव पर छोड़ देता है।  
या फिर एक उफनती तरुण नदी ही तरह,  जो राह में आने वाली मिटटी को खीँच  ले जाती है,
अपने रास्ते...और बहती जाती है कल-कल।  

मंगलवार, 9 मई 2017

पुरानी डायरी

कविताएँ बिखरी पड़ी हैं यहाँ-वहाँ,जो लिखी थी तुम्हारे लिए।

एक पुराने बैग को खंगाल रहा था तभी एक पन्ना आ गया नजरों के सामने ।

उस दिन जब  तुम्हारी लिपिस्टिक जादा गाढ़ी हो गयी थी न,उसकी  नाराजगी लिखी थी मैंने उस पन्ने में।

अनायास ही मेरे  हाथ टेबल के उस खाँचे की ओर बढ़ चले,जहाँ रखी थी वो पुरानी डायरी, जिसमें उकेरे थे कई इल्जामात तुम पर।

तुम जब जब स्टेपकट बाल कटवा लेती थी न,तो वो बिलकुल जंचता नही था मुझे,गुथे हुए लम्बे बाल ही जमते हैं तुमपे।

जब आई लाइनर लगाकर आई थी न तुम आँखों में, तो न जाने कैसे उनमें ही उतरकर ले आया था शब्द मैं औरसजा दिया था उनको पन्ने में। ..

पहली  मुलाक़ात से लेकर,आखरी लम्हे तक की भावनाएं हैं उसमें शब्दों के रूप में।.......

तुमने ही तो भेंट की थी वो डायरी मुझे और तुम ही तो बसी हो उसमें इश्क स्याही से।...........


  

रविवार, 30 अप्रैल 2017

उत्तर पथिक का चुनौतियों को

प्रयत्न थे अथक ,
मुझे डिगाने के,
 मै लड़खड़ाया नही,
और सम्हलता गया।
फिजाओ ने मारे थपेड़े,
मुझे सुखाने को,                     
मै गहरा नही था इतना,
पर और होता गया।
बातो ने,प्रवाहो ने,आभावो नेे, 
कोशिस कि सबने मुझे मिटाने की,
मै और उभरता गया।
अंधियारी घटाएँ भी आईं, 
विप्लव लेकर छाई,
मैं बिखरा तो नही,
पर और निखरता गया।
विपरीत हुई लहरें, 
प्रचंड हुए तूफान,
मै हटा  नही पीछे,
दुगनी रफ्तार से बढ़ता गया।
परिस्थितियों से घबराया नही,
लड़ता गया।
चुनौतियों से जीवन की,
सज्ज होकर भिड़ता गया।

सोमवार, 10 अप्रैल 2017

तुम हो

उतर कर मन की गहराइयों में,
जिस लम्हे में,
मै उलझा था, वो लम्हा तुम हो।
जिसको हर छण देखकर,
हर पल सोचकर,
जिसमें असीमित डूब कर,
अतृप्त था।
वो नजारा,
वो किस्सा,
वो सागर तुम हो।
जिसको कभी समझ न पाया।
जिसको उतार न पाया शब्दों में।
वो धुंधला,अलबेला,अनकहा सा,
फ़साना तुम हो।
जो निर्बन्ध है मुझसे,
मैं बंधा हुआ हूँ जिससे बेकस,
वो बंधन तुम हो।
जो अकारण मुझपे हँसती है,
वो अट्ठाहस तुम हो।
हर छोर से मुझे उलझाई हुई जो,
मरीचिका है न वो तुम हो।
मेरा अधूरा सपना,अधूरा किस्सा,बेजोड़ हिस्सा,
शायद कोई अपना तुम ही हो हाँ तुम ही तो हो।

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

औरो के सपने

औरो के सपने  उनकी उम्मीदें,
अपने अन्दर जीता है।  
उसने क्या चाहा था अपने लिए, 
क्या मायने थे उसके लिए जिन्दगी के,
जैसे भूल गया। 
जिन्दगी भाग रही है अपनी रफ़्तार से,
और धीरे धीरे वो खुद को खोता जा रहा है।  
कभी जरूरते बस आर्थिक है, 
बाकि सब का दर्जा दोयम है।  
उसे उसके लिए पापा की चाहत पूरी करनी है, 
उसे पूरा करना है जो माँ ने सोचा है।  
उसका भाई ,उसकी बहन उसे जहाँ देखना चाहते हैं, 
उसे वहां पहुचना है। .
उसे कहाँ जाना है, क्या करना ये कही दबा हुआ है।
शायद चिल्लाता भी है कोई  अन्दर से कई दफे, 
कभी दबती है चींखे, कभी उभर आती हैं. 
हाँ लेकिन एक आवाज जरुर आती है.
उसे सुनकर चलकर देखो कभी, 
खुद के बुने सपनो को जीकर देखो कभी।  

शनिवार, 25 मार्च 2017

मेरा स्व

"तुम मुझे देखते हो नजरो से ,
अलग -अलग,
निष्कर्ष निकालते हो,
अलग- अलग,
बाते करते हो अलग- अलग,
मुझसे कहते भी हो अलग-अलग,
किन्तु मेरा स्व ही मेरी कहता है.
वही चुनता है उन बातो को,
जो मुझे माननी है .
वही गढ़ता है मेरे व्यक्तित्व को.
देता है रौशनी वही मेरे अस्तित्व को.
मेरा स्व ही मुझे बनाता है,
जीवन को जीना सिखाता है.
सबकी बाते बेमानी है,
आत्म जो कहता है वही मैंने मानी है. "

शुक्रवार, 17 मार्च 2017

फिर से

"फिर से बहक जाने को जी चाहता है,
  फिर से तुझमें खो जाने को जी चाहता है,
           हाँ फिर तुमपे मर जाने को जी चाहता है।

 फिर से बेबात मुस्कुराने को,फिर नींद और चैन लुटाने को,
                        हाँ  फिर से इश्क में डूब जाने को जी चाहता है।  
खोकर तेरी शोहबत में,
                          फिर दुनिया भुलाने को जी चाहता है।  
सोचते तेरी बातो को,
                        हर पल बिताने को जी चाहता है. 
हाँ फिर से ख्वाब मचला सा है,
हाँ फिर से कुछ बदला सा है.
                                       हाँ फिर से शुरू हुआ वो सिलसिला,
                                        बीती बातो में जो अधुरा सा है। "

शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

मैं जीवन को लिखता हूँ

मै जीवन को लिखता हूँ,
पल - पल उभरते भावों पर,
स्याही फेरता हूँ।

डुबो दे देता हूँ नीले रंग में,
कटु अनुभवों को।

उकेर देता हूँ कागज पर,
सुनहरे एहसासों को।

बचपन की ,
शरारती यादों को लिखता हूँ।
किशोर मन की,
उलझी हुई बातो को लिखता हूँ।

युवामन के उल्लासपूर्ण,
उन्मादों को लिखता हूँ।

सकुचाती,अनबुझी,
फरियादों को लिखता हूँ।

हाँ मैं मानव मन की,
भावभीनी बातो को लिखता हूँ।

सीखता हु इन अनुभवों से,
और इनकी समझाईस को,
लिखता हूँ।

हाँ मैं उस जीवन को लिखता हूँ,
जिस जीवन की जीता हूँ।

शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

अंतर्मन का द्वन्द

उद्योग या  विध्वंस,
इसी अंतर्मन में समाहित है,
 बिखराव और प्रबंध।
नवसृजन या अपकर्ष,
विफलता या सफलता,
सभी का वाहक है ,
ये  अंतर्मन के द्वन्द।
सकारात्मक या नकारात्मक,
उत्साही या हतोत्साही
सभी  भावो के प्रभावो का,
उपकर्ता या अपकर्ता है,
ये स्वयं का आत्मद्वन्द।
यही दाता है,प्रदाता है,
यही छीण  कर जाता है,
सभी प्राप्तियों का,अभिकर्ता है,
स्वयं का आत्म-प्रबंध।

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

काली रातों के अनकहे अल्फाज

बेसब्र सा खालीपन है,                    
डाल से गिरने को बेचैन,
सूखा पत्ता हो जैसे।
विध्वंस की जमीन पे,
बिखरे ख्वाबों की नमी ,
सींच रही हो हृदय को जैसे।
तपता सा है कोई रंज है,
बेरंग सा प्रलाप लिऐ।
धुंधली सी एक मंजिल का,
टूटी-फूटी पगडडियों से बना,
अंधला रास्ता हो जैसे।

शनिवार, 21 जनवरी 2017

"कहा जा रहें हैं हम?किस ओर हैं कदम?


कहाँ  जा रहें हैं हम?,
किस ओर हैं कदम?
किस दिशा है मंजिल,
आधुनिकता की चकाचौंध में,
आदर्शो और शुपराम्पराओं कि, 
न पुछ है न परख.
स्वार्थ परक् है हर रिश्ता,
आत्मीयता है अब मात्र किस्सा.
प्रचार और दिखावे अब रिवाज है,
वास्तविकता की अब दबी सी आवाज है.
कहा जा रहे हैं हम,
किस ओर है कदम,
इस हड़बड़ी में , धुल न हो जाए सब,
खो जाए न विश्वास,
खाक न हो अपनापन।

सोमवार, 9 जनवरी 2017

परंपराएं

"परंपराएं जब कोफ़्त का कारण बनने लगें,
तो उन्हें साइड में रख देना चाहिए। क्योंकि वो हमारी सुविधा के लिए बनी हैं, हम उनके लिए नही। "


मंगलवार, 3 जनवरी 2017

जीना-मरना

"हर रोज मरता हूँ
हर रोज जीता हूँ।
न मर पाया पूरा,
जीना भी रह गया थोड़ा।
कुछ तो रह गया अधूरा!
जीना भी है और मरना भी है,
ये अवश्यसंभावी है,
सबको करना ही है।
जिया तब जब मन खुशहाल रहा,
मरा तब जब अंदर से बदहाल रहा।
यूँ बदहाली-खुशहाली धुप-छाव जैसीं हैं,
कदमो से टकराते, आते-जाते पड़ाव जैसी है।"

रविवार, 1 जनवरी 2017

सफलता के मायने

"सफलता स्वयं को संतुष्ट करने में है,
 दुसरो को नही।"

शब्द खत्म नही हुए, खो गए हैं

"शब्द खत्म नही हुए,
खो गए हैं मन की गहराईओं में।
कल रुकी नही,
ठिठुर गयी है हालातों की सर्दी से।
बस स्वार्थ बचा है, इठलाता हुआ,
उंगलिओं पर सबको नचाता हुआ।
अब रह गया है बस अर्थ,
हो गया बाकि सब व्यर्थ।
साम अब औपचारिक है,
सुबह भी अव्यवहारिक है।
ऊबे हुए है एहसास सारे,
बिखरे हुए हैं विश्वास सारे।
खिसक रहा हर दिन ऊबता सा,
है हैरान सा और धुंधला सा। "

बस वर्ष नया है

"बस वर्ष नया है,
और कुछ नही।
वही स्थिति है, 
वही परिस्थिति है।
न बदले लोग,
न बदली वृत्ति है"

"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"

तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...