"शब्द खत्म नही हुए,
खो गए हैं मन की गहराईओं में।
कल रुकी नही,
ठिठुर गयी है हालातों की सर्दी से।
बस स्वार्थ बचा है, इठलाता हुआ,
उंगलिओं पर सबको नचाता हुआ।
अब रह गया है बस अर्थ,
हो गया बाकि सब व्यर्थ।
साम अब औपचारिक है,
सुबह भी अव्यवहारिक है।
ऊबे हुए है एहसास सारे,
बिखरे हुए हैं विश्वास सारे।
खिसक रहा हर दिन ऊबता सा,
है हैरान सा और धुंधला सा। "
खो गए हैं मन की गहराईओं में।
कल रुकी नही,
ठिठुर गयी है हालातों की सर्दी से।
बस स्वार्थ बचा है, इठलाता हुआ,
उंगलिओं पर सबको नचाता हुआ।
अब रह गया है बस अर्थ,
हो गया बाकि सब व्यर्थ।
साम अब औपचारिक है,
सुबह भी अव्यवहारिक है।
ऊबे हुए है एहसास सारे,
बिखरे हुए हैं विश्वास सारे।
खिसक रहा हर दिन ऊबता सा,
है हैरान सा और धुंधला सा। "
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