यहाँ पर्वतों से कोई नदी निकली थी
कहाँ तुम थे और वो कहीं निकली थी।
जो निकल गए कहीं,कल संवारने को
दूर उनसे उनकी सरजमीं निकली थी।
जो थक चुकी थीं दुःख देख देख कर
उन आँखों से सारी नमी निकली थी।
साथ रहकर जब हम दूर हो गए
हममें बहुत सारी कमी निकली थी।
संजीदगी थी,फिर कुछ याद आया
होंठो पर यूँही इक हँसी निकली थी।
उम्र तय हो गई बहुत लम्बी मगर
कुछ चाहतें अभी नही निकलीं थी।
मैंने चाहा था कि वो गलत हो जाएं
वो गफलतें सारी सही सही निकलीं थीं।
- अविनाश कुमार तिवारी
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