मैंने बहुत सी अधूरी कहानियां लिखीं हैं जो एक मोड़ पर रुक जाती हैं। जब मेरी कलम भी थककर आगे चलने से मना कर देती है। मस्तिष्क भी शुन्य को ग्रहण कर शांत बैठ जाता हैं। क्या ये भी उन्ही कहानियों का फेहरिस्त का एक हिस्सा है??????? या ये पूर्णता को प्राप्त करने वाली कुछ थोड़ी सी कहानियों की दीर्घा में बैठेगी???
ये कहानी है सुमन और रितेश की......
अभी दो दिन ही हुए थे मुझे नए घर में शिफ्ट हुए तभी बेडरूम में बनी एक छोटी सी कोठी खोलने पर मुझे एक डायरी मिलीं। काफी धुल पड़ी हुई थी उसपर,कवर पर किसी का नाम नहीं था.. डायरी खोलने पर प्रथम पृष्ठ पर अलग अलग भावों को प्रदर्शित करते हुए छोटे छोटे स्माइली चिपके हुए मिले। डायरी पर किसी का नाम न मिलना अजीब था। कौतुहल के साथ मैंने अगला पृष्ठ खोला काफी कुछ लिखा और पढना शुरू किया-
"मै बालकनी से देखती रहती हूँ साम को जब तुम घर वापस आते हुए नजर आते हो तब मै बाहर के गेट का लॉक खुला छोड़कर जानबूझकर मै अन्दर जाकर सो जाती हूँ। ......तुम्हारा आकर मुझे बड़े आराम से उठने को कहना उसके बाद जमकर डाँटना मुझे अच्छा लगता है। रविवार का वो एक दिन ही मिलता है जिसदिन तुम थक कर घर नहीं आते,,वहीँ सोच कर मै हर हप्ते जिद करतीं हूँ साथ में घुमने जाने की... और हर बार तुम डाँट कर मना कर देते हो। तुम्हारी बेरुखी के बीच भी मै स्नेह ढूँढ लेती हूँ।
शाम को मुझे उठाते समय मेरी बालों पर हल्कें हल्कें तुम्हारा हाथ फेरना भी महसूस होता है मुझे। मुझे डाँट कर मना करने के बाद घर के कामों में मेरा हाथ बटाने की कोशिशें भी दर्ज हैं मेरी आँखों में।"
इन्ही सब बातों में साथ एक पृष्ठ खत्म हुआ। और मैंने अगला पन्ना पढना शुरू किया जिसमें बस एक छोटा सा पैराग्राफ लिखा हुआ था -
"अब तुम जल्दी घर नहीं लौटते। अब लौटने लगे हो आधी रात को जब मुझे सच में नींद आ रही होती है पर मै जागतीं हूँ ,तुम्हे खाना खिलाने के लिये। अब रोज तुम खाना खाय बिना सो जाते हों। न जाने क्या हुआ है ऐसा की सबकुछ बदल गया है।"
मै भी अचंभित था दो पन्नो की दूरी के बीच इतना सब कुछ कैसे बदल गया।
खुद को सुमन की जगह रखकर सोचते हुए। अगला पन्ना खोला मैंने-
"आज फोन आया था तुम्हारे सीनियर विश्वकर्मा अंकल की पत्नी जी का उन्होंने बताया अंकल ने तुम्हे कुछ लोगो को साथ वहां देखा था जहाँ अक्सर नसेड़ी और जुवारी महफ़िल जमाया करतें हैं। तब मेरे दिमाग की परतें खुलने लगीं। कुछ दिन पहले जब तुम्हारा पुराना दोस्त विवेक काफी दिनों बाद मिलने आया था तुमसे उसके बाद से ही तुम देर रात घर लौटने लगे शायद उसी अड्डे पर जाते हो तुम इतने दिनों से। तुम हर रोज टाल जाते हो मेरे सवालों को मगर आज पूछुंगी तुमसे। क्या वहीँ जातें हो तुम हर शाम? क्यूँ जाते हो तुम वहां? "
सुमन के सवालों को जेहन में रखते हुए। अगला पृष्ठ खोला मैंने-
"आखिर बता ही दी तुमने मुझे मेरी जगह। ताश गड्डी ,शराब के पैग और इनके साथ तुम्हारा साथ देने वाले दोस्त जादा मायने रखते हैं तुम्हारे लिये तुम्हे मेरा तुम्हे छोड़कर जाना भी मंजूर पर इन्हें छोड़ना नहीं। आखिर क्या है ऐसा इनमे। मै भी अब घुट-घुट कर नहीं जी सकती तुम्हारे साथ इस अधूरी सी जिन्दगी को कड़ा फैसला लेना पड़ेगा अब मुझे भी। "
सच में एक कड़े फैसले की चाह लिये मैंने अगला पृष्ठ खोला -
"बहुत हो गया कहना सुनना अब जा रही मै दूर तुमसे। घुटन भरे साथ से अच्छा है दूर हो जाना। हो सकता है तुम्हे महसूस हो मेरी कमी। बुलाना चाहो तुम वापस मुझे लेकिन नहीं आउंगी मै अब। मै बस तुम्ही पे निर्भर नहीं, काबिलियत है मुझमें की अपनी दुनिया खुद बसा सकूँ। "
बस इन्ही कुछ पृष्ठों में छोटे छोटे पैराग्राफ के साथ खत्म हो गयी डायरी और सवाल छोड़ गयी मेरे जेहन में की आखिर कहाँ गयीं इसे लिखने वाली सुमन?? कहाँ गया उसका पति रितेश????? ये डायरी यहाँ क्यूँ रह गयीं???
नाम भी नहीं लिखा इस डायरी में किसी का सुमन और रितेश ये दो नाम भी मैंने ही दे दिए दोनों किरदारों को।
अभी दो दिन ही हुए थे मुझे नए घर में शिफ्ट हुए तभी बेडरूम में बनी एक छोटी सी कोठी खोलने पर मुझे एक डायरी मिलीं। काफी धुल पड़ी हुई थी उसपर,कवर पर किसी का नाम नहीं था.. डायरी खोलने पर प्रथम पृष्ठ पर अलग अलग भावों को प्रदर्शित करते हुए छोटे छोटे स्माइली चिपके हुए मिले। डायरी पर किसी का नाम न मिलना अजीब था। कौतुहल के साथ मैंने अगला पृष्ठ खोला काफी कुछ लिखा और पढना शुरू किया-
"मै बालकनी से देखती रहती हूँ साम को जब तुम घर वापस आते हुए नजर आते हो तब मै बाहर के गेट का लॉक खुला छोड़कर जानबूझकर मै अन्दर जाकर सो जाती हूँ। ......तुम्हारा आकर मुझे बड़े आराम से उठने को कहना उसके बाद जमकर डाँटना मुझे अच्छा लगता है। रविवार का वो एक दिन ही मिलता है जिसदिन तुम थक कर घर नहीं आते,,वहीँ सोच कर मै हर हप्ते जिद करतीं हूँ साथ में घुमने जाने की... और हर बार तुम डाँट कर मना कर देते हो। तुम्हारी बेरुखी के बीच भी मै स्नेह ढूँढ लेती हूँ।
शाम को मुझे उठाते समय मेरी बालों पर हल्कें हल्कें तुम्हारा हाथ फेरना भी महसूस होता है मुझे। मुझे डाँट कर मना करने के बाद घर के कामों में मेरा हाथ बटाने की कोशिशें भी दर्ज हैं मेरी आँखों में।"
इन्ही सब बातों में साथ एक पृष्ठ खत्म हुआ। और मैंने अगला पन्ना पढना शुरू किया जिसमें बस एक छोटा सा पैराग्राफ लिखा हुआ था -
"अब तुम जल्दी घर नहीं लौटते। अब लौटने लगे हो आधी रात को जब मुझे सच में नींद आ रही होती है पर मै जागतीं हूँ ,तुम्हे खाना खिलाने के लिये। अब रोज तुम खाना खाय बिना सो जाते हों। न जाने क्या हुआ है ऐसा की सबकुछ बदल गया है।"
मै भी अचंभित था दो पन्नो की दूरी के बीच इतना सब कुछ कैसे बदल गया।
खुद को सुमन की जगह रखकर सोचते हुए। अगला पन्ना खोला मैंने-
"आज फोन आया था तुम्हारे सीनियर विश्वकर्मा अंकल की पत्नी जी का उन्होंने बताया अंकल ने तुम्हे कुछ लोगो को साथ वहां देखा था जहाँ अक्सर नसेड़ी और जुवारी महफ़िल जमाया करतें हैं। तब मेरे दिमाग की परतें खुलने लगीं। कुछ दिन पहले जब तुम्हारा पुराना दोस्त विवेक काफी दिनों बाद मिलने आया था तुमसे उसके बाद से ही तुम देर रात घर लौटने लगे शायद उसी अड्डे पर जाते हो तुम इतने दिनों से। तुम हर रोज टाल जाते हो मेरे सवालों को मगर आज पूछुंगी तुमसे। क्या वहीँ जातें हो तुम हर शाम? क्यूँ जाते हो तुम वहां? "
सुमन के सवालों को जेहन में रखते हुए। अगला पृष्ठ खोला मैंने-
"आखिर बता ही दी तुमने मुझे मेरी जगह। ताश गड्डी ,शराब के पैग और इनके साथ तुम्हारा साथ देने वाले दोस्त जादा मायने रखते हैं तुम्हारे लिये तुम्हे मेरा तुम्हे छोड़कर जाना भी मंजूर पर इन्हें छोड़ना नहीं। आखिर क्या है ऐसा इनमे। मै भी अब घुट-घुट कर नहीं जी सकती तुम्हारे साथ इस अधूरी सी जिन्दगी को कड़ा फैसला लेना पड़ेगा अब मुझे भी। "
सच में एक कड़े फैसले की चाह लिये मैंने अगला पृष्ठ खोला -
"बहुत हो गया कहना सुनना अब जा रही मै दूर तुमसे। घुटन भरे साथ से अच्छा है दूर हो जाना। हो सकता है तुम्हे महसूस हो मेरी कमी। बुलाना चाहो तुम वापस मुझे लेकिन नहीं आउंगी मै अब। मै बस तुम्ही पे निर्भर नहीं, काबिलियत है मुझमें की अपनी दुनिया खुद बसा सकूँ। "
बस इन्ही कुछ पृष्ठों में छोटे छोटे पैराग्राफ के साथ खत्म हो गयी डायरी और सवाल छोड़ गयी मेरे जेहन में की आखिर कहाँ गयीं इसे लिखने वाली सुमन?? कहाँ गया उसका पति रितेश????? ये डायरी यहाँ क्यूँ रह गयीं???
नाम भी नहीं लिखा इस डायरी में किसी का सुमन और रितेश ये दो नाम भी मैंने ही दे दिए दोनों किरदारों को।
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