"हर रोज मरता हूँ
हर रोज जीता हूँ।
न मर पाया पूरा,
जीना भी रह गया थोड़ा।
कुछ तो रह गया अधूरा!
जीना भी है और मरना भी है,
ये अवश्यसंभावी है,
सबको करना ही है।
जिया तब जब मन खुशहाल रहा,
मरा तब जब अंदर से बदहाल रहा।
यूँ बदहाली-खुशहाली धुप-छाव जैसीं हैं,
कदमो से टकराते, आते-जाते पड़ाव जैसी है।"
"चल अविनाश अब चलते है मन की उड़ान हम भरते हैं. बंद आँखों की बातो को,अल्हड़ से इरादों को, कोरे कागज पर उतारेंगे अंतर्मन को थामकर,बाते उसकी जानेंगे चल अविनाश अब चलते है मन की उड़ान हम भरते है"
मंगलवार, 3 जनवरी 2017
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