गुरुवार, 12 मार्च 2015

नासमझ

हाँ मैं नासमझ हूँ,

बचपन की में ललक हूँ।

मैं तो कच्ची मिटटी हूँ,

बेगाने अकार को निकली हूँ। 

हर रंग में ढल जाती हूँ,

हर नब्ज में मिल जाती हूँ।

अव्यवस्थित सा मैं साज हूँ,

असंगठित आगाज हूँ।

मैं खुद से बाते करती हूँ

बेहमतलब में मै हँसती हूँ। 

मुझे हर को सच्चा लगता है,

अंजान  भी अच्छा लगता है

हर चिंता से आजाद हूँ मैं

हाँ अभी तो बस शुरुआत हूँ मैं।

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