बुधवार, 11 मार्च 2015

मेरी कविता

सच्ची  की झूठी ना जाने कैसी हो 
लगती  हो  नादान सी,
हाँ हो थोड़ी अंजान सी
पर मुझको अपनी लगती हो। 
तुम मनचली,अल्हड़,मतवाली सी
थोड़ी पगली हो थोड़ी दीवानी सी। 
तोड़ के सारे बंधन
तुम अच्छी लगती हो बेलगाम सी। 
हया और बेबाकी तुम्हारे गहने है ,
है हर अदा में नयापन 
जो आकर्षित करता है। 
लिख  रहा  हूँ तुम्हे कैसे लिखू
हर शब्द मुझे तुम्हारी ओर खींचता है।
खेल रही हो मेरे हर लफ़्ज़ों से
जाने कैसी शरारत है,
ये फेरे तुम्हारी यादो के
ये तो बस मेरी आफत है।  

1 टिप्पणी:

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