सोमवार, 9 मार्च 2015

अधूरी चाहत

फिर से अधूरी चाहत के
पन्ने पलट रहा हूँ।
कहना चाहता था तुमसे
पर लफ्ज़ ठिठक गए।

ख्वाबो की गहरी नदी में
फिर गोते लगा रहा हूँ
डूबना था तेरी आँखों में
पर आंखे छलक गईं।

झिझकता था मै तुमसे
तुम मुझसे कतराती थी
कह न सका कोई कुछ भी
अनसुनी आहें भरते रह गए।

तुम्हारी एक झलक के लिए
वो भोर में उठ जाना।
गुलाबी ठण्ड में नंगे पांव
छत पर पहुँच जाना।

तुम जब भी नजरें उठाई थी
मै नजरें झुका लेता था।
भावना के उन्माद को
अंतर्मन मै दबा लेता था।

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