सोमवार, 20 अगस्त 2018

हसीं बातें

"शहर के किसी बगीचे से,
 गुलाब,गेंदा,रजनीगंधा के पुष्प चुनना।

 गाँव के किसी बाग़ में,
 मयूर,कोयल,पपीहा की बोली सुनना।

कस्बे के बच्चो संग,
लुकाछुपी,बर्फ-पानी,नदी-पहाड़ खेलना।

किराये की पुस्तक में,
ध्रुव,नागराज,चाचा की कहानियां पढना।

सबका एकसाथ बैठकर,
रामायण,महाभारत,शक्तिमान देखना।

दोपहर में घर से भागकर,
नदी,तालाब,बांध में उतरकर नहाना।

आधे स्कूल से भागकर,
कहीं से आम,अमरुद,इमली चुराना।

त्यौहार में सबके आने पर,
सांप-सीढी,लूडो,व्यापार का चलना।

बहुत हसीं है,
कभी भी कहीं भी इन बातों का घटना। "

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

भावों का भी होता है ऋतूछरण

"भावों का भी होता है ऋतूछरण।
 बेसाल्ट की तरह।
 फिर हो जाते हैं वो कायांतरित।
 द्वेष के जमाव से।
 और हो जाते हैं वो काकवर्ण।
 मिटटी की तरह।
 बढ़ जाती है छमता उनकी।
 धीरज धरने की।
 फिर उपज जाती हैं दूरियां।
 धीरे-धीरे।
 संबध हो जाते हैं अम्लीय।
 कभी-कभी।
 खा जाता है आत्मीयता को।
 जाल स्वार्थों का।
और पड़ जाते हैं दाग-धब्बे।
रिश्तों की डोर पर।
कभी खो जाती है मूल वृत्ति।
अपनत्व की।
गोंडवाना शैलों की तरह।
बदल जाता है रंग उसका।
हो जाती हैं संभावनाएँ कम।
साथ चलने की।"

धूप वंदना

उष्ण है आँचल तेरा,
पर देता है शीतलता
आँखों को।
कभी-कभी असहनीय है
पर तू आवश्यक है।
तृष्ण सी है आभा तेरी,
पर देती है हरियाली तू
प्रकृति को।
तू प्राणदायनी है,
यूँ ज्वलित होकर भी
उत्पादन करती है,
अतुल्य तेरा ताप है
पर देती तू संताप है।
तू जीवन की प्रसूता है।
तेजोमया है करुणामयी है।"

 "अदम्य उर्जा का श्रोत है तू  धूप।"
 


 

तुम हो

उतर कर मन की गहराइयों में,
जिस लम्हे में, मै उलझा था।
वो लम्हा तुम हो।
जिसको हर छण देखकर,
हर पल सोचकर,
जिसमें असीमित डूब कर,
अतृप्त था।
वो नजारा,वो किस्सा,
वो सागर तुम हो।
जिसको कभी समझ न पाया।
जिसको उतार न पाया शब्दों में।
वो धुंधला,अलबेला,अनकहा सा,
फ़साना तुम हो।

जो निर्बन्ध है मुझसे,
मैं बंधा हुआ हूँ जिससे बेकस,
वो बंधन तुम हो।
जो अकारण मुझपे हँसती है,
वो अट्ठाहस तुम हो।
हर छोर से मुझे उलझाई हुई जो,
मरीचिका है वो तुम हो।
मेरा अधूरा सपना,अधूरा किस्सा,बेजोड़ हिस्सा,
शायद कोई अपना तुम ही हो हाँ तुम ही तो हो।

कत्त्थई डायरी

"वो कहती थी!
इश्क के मकान से गुजरकर
कुछ एहसास ले आऊं।

मै था कि
डेहरी से लौट आता था।
कभी कभी चंद पंक्तियाँ उतार देता था पन्नो पर,
शायद यहीं मेरी सौगातें थीं उसके लिये।

वैसे बहुत कुछ था छिपा हुआ सबसे,
वहीं था जो मेरी कत्त्थई डायरी के पन्नो तक सिमटा हुआ था।

उममें सब उसका था मेरी लेखनी के अलावा।
एहसास सारे उसके लिये थे।
शब्द सारे उसके लिये थे।
वो सबकुछ उसमें था
जो मेरे होंठो की दहलीज लांघ नहीं पाता।

किसी के साथ जन्म-जन्मांतर तक
साथ आने की रश्में निभाने के बाद।
जब वो लाल जोड़े में बैठी हुई थी।
तभी वो डायरी और उसमें उपजे सारे एहसास
उसे सुपुर्द कर आया।

अचेतन मन

संतोष की सीमाओं के उसपार,
बहुत कुछ होता है।
अक्सर हमारे,
अचेतन मन में रुका हुआ।
ये अतिवादी इक्षाएं,
यदा कदा
बंद आंख कें स्वपनों में ही,
पूरी हो जाती हैं,
या अधूरी रह जाती हैं।

कई दफे में हम,
नींद के पहरों में कैद होकर,
उन्ही अरमानो को
जी भी लेते हैं
जो हकीकत में
घटित नहीं हो पाते।

देखने लायक थी

जब पर्दा उठा किरदार से,
कालिख देखने लायक थी।
सच पड़ा था जब रद्दी में,
गर्दिश देखने लायक थी।
बात निकली जब दूर तक,
रंजिश देखने लायक थी।
दूर ही रह गई मंजिल तो,
कोशिश देखने लायक थी।
नहीं मिल पाई कामयाबी,
जुर्रत देखने लायक थी।

साझी दुनिया

 मेरी उलझने तुम सम्हाल लो
 तुम्हारी व्यथाएँ मेरी हो जाएँ।

 धड़कने,साँसे,रुदन,हँसी,
 मेरी और तुम्हारी।
 आओ बंटवारा कर लें,
 इनका भी ऐसे कि,
 मेरा हिस्सा तुम रख लो।
 तुम्हारा भाग मै माँग लूँ।

 फिर सब कुछ,
 न पूरा मेरा होगा,
 न पूरा तुम्हारा होगा।

 परेसानियाँ,चिंताएं,
 संवेदनाएं,आशाएँ।
 जो भी होंगी सब हमारी होंगी।
 फिर बन जाएगी हमारी,
 साझी दुनिया।

तुमने शर्म को बेच खाया है।

एकबार स्वर्ग में  देवताओ के बीच मंत्रणा हुई की शर्म को पृथ्वी पर कहाँ भेजा जाए। फिर ये निश्चित किया गया की उसे भारत में निवास करने भेजा जाएगा। उसने जैसे ही भारत की धरती पर कदम रखा। कुछ वहसी दरिन्दे उसे खा जाने वाली नजरो से घूरने लगे। जैसे तैसे उनसे नजरे बचाते आगे बढ़ी ही थी की वो इंसान के रूप में बैठे कुछ शैतानो क हाथ लगी और वो उसे नोचने खसोटने लगे और उसका व्यापार करे लगे। उसके बाद शर्म का पता लगाने के लिए देवताओं ने जमीर को भारत भेजा। वो आते साथ कुछ नेताओं पत्रकारों और अधििकारयों के हाथो मारा गया। 

क्या अब कोई तथागत बन सकता है?

  क्या अब कोई तथागत बन सकता है?
  क्या आ सकते हैं आदि शंकराचार्य?

  नही होगा अब कोई रामानंद!
  नही होगा अब कोई कबीर।
  नही मिलेगा अब कोई परमहंस,
  नही बनेगा कोई बालक नरेन्द्र,
  अब विवेकान्द।

  आया तो बंट जाएगा हर कोई,
  भगवा,नीले,हरे और लाल रंगों में।
  बंध जाएँगे विचार अब,
  इन समूहों की परिधि में।

सोचता हूँ

  सोचता हूँ कई दफे!

  जैसे अक्षरों को
  बांध के शब्द बना देता हूँ।

  फिर शब्दों को
  बांधकर वाक्य।

  फिर वाक्यों को
  मिलाकर ही तो,
  अर्थ दे देता हूँ
  अपने भावों को।

  बस इन्ही अक्षरों की तरह।
  बांधना चाहता हूँ उसे भी,
  एक सूत्र में मेरे साथ।
  मन से मन को जोड़कर,
  पाना चाहता हूँ एकत्व को।
  

"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"

तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...