अनेक झरनों की सर्जक नदी
मैं नही कह सकता स्वयं को।
मुझे नदी से निर्मित झरना ही
मानना होगा स्वयं को।
नदी तो कोई स्त्री ही कहला सकती है।
कल कल बहती हुई लम्बी दूर तय करती
प्रवाहमान,चंचल,अविरल नदी से
नही कर सकता पुरुष स्वयं की तुलना
उसे स्थिर समुद्र ही कहलाना होगा।
मैं अविराम,अल्हड़,अनवरत बहती
हवा भी नही कह सकता स्वयं को
मैं कहला सकता हूँ हवा का एक झोंका
पुरुष मिट्टी,धरती,प्रकृति,समिष्टि आदि
कोई भी उपमा नही दे सकता स्वयं को
उसे कहलाना होगा इनपर आधारित
कोई अति लघु,अल्प महत्तम उत्पत्ति ही।
जब पुरूष पत्थर कहेगा स्वयं को,
स्त्री चट्टान बनकर बड़ी हो जाएगी।
जब पुरूष पर्वत कहेगा स्वयं को,
स्त्री पर्वत श्रृंखला बनकर बड़ी हो जाएगी।
जब पुरुष बनेगा सौर मंडल
स्त्री आकाशगंगा बनकर बड़ी हो जाएगी।
संसार,अंतरिक्ष,ब्रह्मांड आदि,
हैं कुछ वृहत्तर अपवाद
किंतु इन सब की उत्पत्ति सृष्टि तो
स्त्री ही कहला सकती है।
महत्तम उपमाओं का विस्तृत विस्तार,
स्त्री सूचक शब्दों से ही गठित होता है।
पुरूषों के हिस्से आये हैं बस कुछ अपवाद।
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