शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

जद्दोजहद

पहले पहल हर वक्त माँ को,
अपने आस-पास ही पाने की जद्दोजहद।
फिर माँ के आँचल से छूटकर,
कहीं बाहर भाग कर जाने की जद्दोजहद।
फिर कांधे पर बस्ता लादकर,
पढ़ाई के बोझ से पार पाने की जद्दोजहद।
उठाकर पिता की उम्मीदों का बोझ,
उनपर खरा उतरके दिखाने की जद्दोजहद।
फिर लेकर कई सारी जिम्मेदारियां,
लगी रहती है कमाने-धमाने की जद्दोजहद।
फिर ढलने की ओर बढ़ती उम्र में,
नई पीढ़ी को लायक बनाने की जद्दोजहद।
अंततः उम्र के अंतिम पड़ाव पर,
उपेक्षाओं से बचे रह जाने की जद्दोजहद।

गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

…......

अनेक झरनों की सर्जक नदी
मैं नही कह सकता स्वयं को।
मुझे नदी से निर्मित झरना ही
मानना होगा स्वयं को।
नदी तो कोई स्त्री ही कहला सकती है।

कल कल बहती हुई लम्बी दूर तय करती
प्रवाहमान,चंचल,अविरल नदी से
नही कर सकता पुरुष स्वयं की तुलना
उसे स्थिर समुद्र ही कहलाना होगा।

मैं अविराम,अल्हड़,अनवरत बहती
हवा भी नही कह सकता स्वयं को
मैं कहला सकता हूँ हवा का एक झोंका

पुरुष मिट्टी,धरती,प्रकृति,समिष्टि आदि
कोई भी उपमा नही दे सकता स्वयं को
उसे कहलाना होगा इनपर आधारित
कोई अति लघु,अल्प महत्तम उत्पत्ति ही।

जब पुरूष पत्थर कहेगा स्वयं को,
स्त्री चट्टान बनकर बड़ी हो जाएगी।
जब पुरूष पर्वत कहेगा स्वयं को,
स्त्री पर्वत श्रृंखला बनकर बड़ी हो जाएगी।
जब पुरुष बनेगा सौर मंडल
स्त्री आकाशगंगा बनकर बड़ी हो जाएगी।

संसार,अंतरिक्ष,ब्रह्मांड आदि,
हैं कुछ वृहत्तर अपवाद
किंतु इन सब की उत्पत्ति सृष्टि तो
स्त्री ही कहला सकती है।

महत्तम उपमाओं का विस्तृत विस्तार,
स्त्री सूचक शब्दों से ही गठित होता है।
पुरूषों के हिस्से आये हैं बस कुछ अपवाद।

तुम सुनना भूल गए थे

"तुमने जंगल उजाड़ते वक़्त
वृक्षों का करुण क्रंदन सुना था?

जब तुमने फूल तोड़ा
फिर उसकी पँखुड़ियाँ 
बिखेरते वक़्त
कलियों का रुदन सुना था?

तुमने नदियों को टोका
फिर बांध बनाया
तब लहरों का 
विद्रोह स्वर सुना था?

जब कर रहे थे परमाणु परीक्षण
तब विस्फोट करते वक़्त
भूमि का क्रुद्ध कंपन सुना था?

तुमने खनिज खोजे
किया आदिवासी विस्थापन
तब उन वनचरों का दर्द सुना था?

तुमने किया था बहुत कुछ
लेकिन बहुत कुछ सुनना
भूल गए थे।"

कविताओं की चालाकियां

उसने लिखी थीं बेलौस कविताएँ 
जब उसे भान नही था,
कविताओं की चालाकियों का।

जब बारीकियां समझीं कविताओं की।
तब कविताओं के माध्यम से 
भ्रम फैलाए और मिथक गढ़े।

बुधवार, 27 अप्रैल 2022

तृण मात्र सा मैं

होता तृण मात्र सा मै।
हवाओं में उड़ता,
नियंत्रित होता उनके वेग से।
फिर कोई चिड़िया,
चोंच में दबाकर ले जाती।
बना देती हिस्सा अपने घोंसले का।
बनता मै।
अंडों के फूटने,
बच्चो के पलने,
बड़े होने। 
फिर उड़ कर अन्यत्र चले जाने की।
पूरी प्रक्रिया का दर्शी। 
उजड़ जाता घोंसला 
फिर समय के साथ। 
और बिखर जाता मैं 
किसी पेड़ के पास। 
फिर दब कर 
समय दर समय मिट्टी में।
चला जाता गहराई में। 
बन जाता फिर 
जीवाश्म का कोई अशेष। 💙

जब पहली मूर्ति बिकी होगी

"जब पहली मूर्ति बिकी होगी,
कभी,कहीं,किसी समय पर।

तब हुआ होगा प्रथम साक्षात्कार,
आस्था का दोहरेपन से।

अभौतिक आध्यात्मिकता की
पथदर्शी आस्था।
उतरी होगी भौतिक मूर्ति में।

लौकिकता और अलौकिकता,
खड़ी होंगी हाथ थामे,
जुड़वा बहनों की तरह।

धर्म और व्यापार ने
खेली होगी पहली बाजी
एक ही मेज पर।

जब पहली मूर्ति बिकी होगी।"


मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

गाँधी प्रासंगिक रहेंगे

एक धड़ा उन्हें दोष देगा।
एक धड़ा श्रद्धांजलि देगा।
गाँधी प्रासंगिक रहेंगे।

शब्दों से लेकर वक्तव्यों तक।
कागजों से लेकर ज़ुबान तक।
अपनत्व से लेकर घृणा तक।
सज्जनता से लेकर धूर्तता तक।
गाँधी प्रासंगिक रहेंगे।

मजदूरों के लिए-किसानों के लिए
बनती बिगड़ती सरकारों के लिए।
हठियों के लिए मजबूरों के लिए
कुर्सियों पर मरते हुजूरों के लिए।
गाँधी प्रासंगिक रहेंगे।

नेहरू और सुभाष के साथ
भगत और सरदार के साथ
जिन्ना,लूथर और मंडेला के साथ
अम्बेडकर और जयप्रकाश के साथ
गाँधी प्रासंगिक रहेंगे।

सबके अपने अलग-अलग गाँधी।
कुछ नाम के कुछ कर्तव्य के गाँधी।
विविध प्रकार के प्रसंगों में गाँधी।
उलझे और सुलझे प्रपंचों में गाँधी।
हर लिहाज से प्रासंगिक हैं गाँधी।

अंतर्द्वंद्व

मै बेचैनियों की कसक ढूंढ रहा था
कुछ लिखने के लिए।

अपने हालातों से रश्क़ नही था।
किसी और का दर्द ढूंढ रहा था
कुछ लिखने के लिए।

मै उदास नही रह पाता था।
कुछ कड़वे वहम ढूंढ रहा था
कुछ लिखने के लिए।

शब भी सपाट सी बीत जाती थी।
किसी के जाने का गम ढूंढ रहा था
कुछ लिखने के लिए।

मलाल नही होता था कुछ छूट जाने का।
कुछ न मिल पाने का सबब ढूंढ रहा था
कुछ लिखने के लिए।

मेरे मन को छूकर मुझे तन्हा छोड़ जाओ।
किसी से जुदाई के अश्क़ ढूंढ रहा था
कुछ लिखने के लिए। 

प्रेम की परिणीति

जब तुम्हारे भाव-आडंबरों के मध्य छिपा
मूल भाव ढूंढ लूँगा।
तब समझूँगा की प्रेम की परिणीति हुई।

जब तुम्हारी हँसी के
नैसर्गिक और दिखावटी स्वरूप में
अंतर कर लूँगा।
तब समझूँगा की प्रेम की परिणीति हुई।

जब तुम्हारे रूखे शब्दों के आवरण में सांस लेते
प्रेमांकुरों की पुष्टि करने लगूँगा।
तब समझूँगा की प्रेम की परिणीति हुई।

जब शब्दों से परे होकर
बातें करने लगूँगा तुम्हारी भाव भंगिमाओं से
तब समझूँगा की प्रेम की परिणीति हुई।

क्योंकि,
किसी के मूल अस्तित्व से
जुड़ जाने में ही तो
प्रेम की परिणीति है।

नव कोंपलें

इन कोमल कोपलों को देखकर
मन मे प्रश्न उठता है कि-

पतझड़ के बाद
जब नव कोपलें फूटी थीं
तब कौन था उनका प्रथम दृष्टा?

:- जब वृक्षों से पत्ते गिर रहे थे
तब जिसकी दृष्टि में होगा
टूटता हुआ अंतिम पत्ता।
उसी ने किया होगा
प्रथम साक्षात्कार
नव पात का।

- लेकिन ऐसा क्यों?

:- क्योंकि अंतिम बिंदु तक टूटकर
पुनः नव उमंगें पालने वाले कि दृष्टि ही
होती होगी सबसे पवित्र।

- तो इस बात का
नई कोपलों के स्फुटन से
क्या संबंध?

:- संबंध है,
क्योंकि नई कोपलों का फूटना
संसार की सबसे पवित्र
प्रक्रियाओं में से एक है।

- तुम्हारी ये बातें हमेशा की तरह
आधी डब्बा गोल हो जाती हैं
लेकिन सुनकर अच्छा लगता है।

:- कोई बात नही समझने से ज्यादा महत्वपूर्ण है
तुम्हे अच्छा लगना।

उदासियाँ


आदतन ख़ुश रहता हूँ मैं
उदास नज़्मों के पीछे से झाँकते
मुस्कुराते हुए चेहरों को ढूंढ़ता हूँ।
उदासी तो मुस्कान की ही
कोई रूठी सहेली होगी।
उसे मनाने के तरीके सोचता हूँ।

मेरे सपनों में,
सूख चुकी जमीन की दरारों से
कोई बेल निकल आती है,
जो खड़ी करती है
श्वेत पुष्पों की पंक्तियाँ।
और उन पुष्पों के रस को चखने,
आता है रंगीन तितलियों का जत्था।

उदासी के पास भी बहुत से रंग होंगे।
जिनमें शायद सबसे उदास रंग ही,
हँसता हुआ नजर आता होगा।

वो बेनाम उदासियाँ जो
हँसी में परिवर्तित हो जाती हैं।
मैं उनसे ही उनकी
कहानियां सुनना चाहता हूँ।

मैं सोचता हूँ कि
वो उदासियाँ ही तो होंगी।
जो करती होंगी,
सबके खुश रहने की प्रार्थना।

.…......

ठहरने को मुनासिब
इक जगह नही थी।
लौटने को मुनासिब
इक वजह नही थी।

अनवरत चलता रहा
पलायन का सिलसिला।
स्थायित्व रूठा रहा मुझसे,
उसे मनाने कि
मुझे गरज नही थी।

चंद रातों को ठहरकर
कुछ ख़्वाब देखे।
चंद दिनो की भागमभाग में
तोड़ दीं ख़्वाबों की कड़ियां।
ख़्वाबों के कारोबार में
अब बसर नही थी।

दिल लगाने को
कुछ पल ही ढूंढे।
दिलों में बसने की
कोई जुगत नही की।

"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"

तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...