शनिवार, 27 दिसंबर 2014

कितने दूर कितने पास?

                                       
"तुम मुझे भूल जाओ,
 मै तुम्हे भूल जाता हूँ।
 विरह की नौका पर बैठकर,
 अश्रुधारा पर पतवार चलाता हूँ। .

बेरुखी तुम दिखाना,
 मै रुख बदल लेता हूँ।
नम आँखों से,
यादो के समंदर में गोते लगाता हूँ।

किताब के पन्ने पलटते-पलटते,
वो फूल मुरझाया सा नजर आएगा।
घूमने लगेगा तेरा चेहरा आँखों के सामने,
 वक़्त ठहर सा जायगा।

जिन्दी चलती रहेगी अपनी रफ़्तार स,
 कभी नजरो से सामने वो बगीचा आएगा।
नरजे दौड़ेंगी अतीत की ओर,
कुछ धुंधला सा तेरा-मेरा चेहरा नजर आएगा।

कभी सब्जिया लेते हुए बाजार में,
एकाएक कोई मुझसे टकरायगा,
सिहर उठेंगी साँसे,
 फिर यादो का सैलाब,
अतीत के पन्नो की ओर,
समेट ले जायगा.

अरमान फिर मचलेंगे
बेकरारी फिर बढ़ेगी
तू मेरा है में तेरा हूँ,
अकेले तनहा अब कौन कहा जायगा" 

सोमवार, 15 दिसंबर 2014

नज़्म - 1

तनहाइयों में तुझे गुनगुनाता हूँ,
बस तुझी में डूब जाता हूँ।
तू राहत है,तू चाहत है,
मेरी अनकही सी इबादत है।

होंठो पे तेरी रंजिस है,
साँसों में तेेरी बंदिश है।

दो कदम चलकर रुक जाता हूँ,
जाने क्यों तेरी ओर मुुुड़ जाता हूँ।

कस्तूरी सी तू मुझमें बसती है,
नजरे तेरी तलाश में भटकती हैैं।

तुुझे खयालो में बांध कर ही 
उपजी हर कविता है।
जो मुझमें बहती है,तू वो सरिता है। 

विश्व के निर्माता के लिए

खोज है तेरे अस्तित्व की 
अलौकिक तेरे कृतित्व की।
हवा में बहते तेरे नाम की,
सांसो में बसे तेरे एहसास की।
जमीं के इस छोर से लेकर,
उस छोर तक फैला सा है;
पर ना जाने क्यों धुंधला सा है।
तुझसे होता आगाज है, 
अंत भी तेरे  ही साथ है।
धरा से लेकर आसमान तक, 
लहरें तेरी गूंजती हैं,
तू सत्य है या भ्रम रूह पूछती है ?

बिना अस्तित्व के 
ये कैसी सत्ता है
कहते है तेरे नाम से 
हिलता हर पत्ता है।   
      
कही सुनता हूँ तू निराकार है
फिर कैसे बंधा तेरा अकार है।
कहते है तू आत्म में बसता है
फिर क्यों मनुष्य तुझे 
मंदिरों में ढूंढता है।

जब सच्चे मन से 
याद करने में ही तेरा साथ है
फिर जटिल रस्मो की क्या जात है?

कहते है परहित में ही तेरा साथ है
फिर पत्थर की मूरत पर
क्यों चढ़ता प्रसाद है?

मंजिल सबकी जब एक है 
फिर क्यों रास्ते को लेकर विभेद है

कहते है तू एक है 
फिर तेरे नाम पर 
बने क्यों पंथ अनेक हैं?

खोज रहा हूँ खोजता रहूँगा।
स्वयं के भीतर तेरा अस्तित्व,
ये सोचता रहूँगा।

रविवार, 7 दिसंबर 2014

इन्सान हूँ मैं

इन्सान हूँ मैं।
कभी मैं लोभी बन जाता हूँ
कुछ चीजे मुझे आकर्षित करती हैं।
कभी क्रोध भी आता है मुझे 
कुछ बातें मुझे अधीर करती है
कभी मैं फरेबी भी हो जाता हूँ
कुछ खोने का डर सताता है मुझे
कई चेहरे हैं मेरे समय समय पर उभरते हैं
परिस्थितियां प्रभावित करती हैं मुझे।
महत्वकांछी भी हूँ मैं खुद को अलग दिखाने की 
कोशिश करता हूँ नजरो का केंद्र बनने के लिए
हाँ मैं गलतिया भी करता हूँ
कुछ बाते विचलित करती हैं मुझे।
रंग भी बदलता हूँ कभी गिरगिट की तरह 
डरता हूँ कुछ बातों के होने से।
शर्मिंदा भी होता हूँ मैं 
हाँ वक़्त लगता है 
गलती का एहसास होने मे।
कभी भावनाओ मैं बह जाता हूँ 
चंचल है मन मेरा डोर तोड़ देता है।
कभी संकोच करता हूँ
कुछ कहने मैं कुछ बाते 
असहज करती हैं मुझे।
इन्सान हूँ मैं।
दया,क्रोध,शर्म,लोभ,काम,
नफरत, प्रेम,अपनत्व,अलगावो 
सभी भावो से चरित हूँ मैं।

सोमवार, 24 नवंबर 2014

मन में बहती सरिता


बहती हो वो हवा सी,
                            छा जाती हो घटा सी।
सोंधी सी जैसे मिटटी हो,
                          ओंस में भीगी पत्ती हो।
झरने सी वो निर्झर हो,
                            हिरणी सी वो चंचल हो।
सात रंगो की छाप हो,
                            सात सुरों का राग हो।
निशा सी उसकी छाया हो,
                          चाँद सी उसकी काया हो।
शराब सी वो नशीली हो
                           अनसुलझी सी पहेली हो।
बाह जाऊँ उसके वेग में
                             खो जाऊँ उसके तेज में।
बचपन सी नादानी हो,
                           परियो की वो कहानी हो।
सभी गुणों का उल्लेख हो,
                              मन से लिखा वो लेख हो।
दसों रसों का स्थाई भाव हो,
                               महाकाव्य सा प्रभाव हो।
प्रकृति सी वो संपन्न हो,
                                 पाकर उसे मन प्रसन्न हो।
                   

शनिवार, 8 नवंबर 2014

कवि का मन

आज का कवि सोया हुआ है 
जीवन की आपाधापी में खोया हुआ है।
हृदय आशंकित है आज ये चिंतित है।

कला की कुशलता और अर्थ की विफलता के तले कुंठित है। 
सार्थक कला और आकर्षक कला में चल रहा द्वन्द है,
आज का कलमकार कहाँ स्वच्छंद है। 

एक ओर कठिन सामाजिक समस्याओं के 
हृदय विदारक वर्णन को अवलम्बित है, 
दूसरी ओर किसी के सौंदर्य वर्णन को आकर्षित है। 

स्वपनिम प्रतिबिम्बों और वास्तविक चलचित्रों के बीच 
डोल रहा है,
दबी सी जुबान में न जाने क्या बोल रहा है।  
 गूढ़ शब्दों को ढूंढता है,कुछ हटके लिखने की सोचता है। 

 काव्य की सरिता टेढ़ी-मेढ़ी राहें बनाती हुई बहती है, 
 कवि की कल्पना नौका सहमे-सहमे पतवारों से चलती है। 
कवि जब आर्थिक आवश्यकताओ की ओर देखता है,
शब्दों के उपबंध छोड़कर अर्थ प्राप्ति के साधन खोजता है।  
मात्र कवि होना आज साधनहीन जीवन का रास्ता है,
इसी चिंतन में व्यक्ति अपने अंतर के 
न जाने कितने कवियों को मारता है। 
आज कवि जब लोकप्रियता की और देखता है,
फूहड़ और रंगीन शब्दों को टटोलता है,
क्या यही है पैमाना इसी द्वन्द में मन डोलता है। 
जब इन्द्रिय सुख की और देखता है,
स्त्री  के श्रृंगार,सुबह के ऐश्वर्य,
संध्या के सौंदर्य में शब्द जोड़ता है।
जब राजनीति की ओर देखता है 
नेताओ की टाँग खींचता है, 
शब्दरूपी पत्थरो से उनपर वार करता है।
कवि जब शोषित वर्ग की ओर  जाता है,
अन्याय के प्रति कलम से तीर चलाता है।
जब कुरीतियों और अपराधो की और देखता है,
तिल- तिल कर मरती मानवता को शब्दों में उकेरता है।
जब रति के फेर प्रेमजाल में पड़ता है,
प्रियतम के माधुर्य को कविता में  व्यक्त करता है।
जब अश्रुरित अक्छो से विरह वेदना सहता है,
दीन हीन संगीन सा प्रेम अभाव को कहता है।
कवि के मन का चंचल अश्व  हर और दौड़ता है, 
न जाने कितनो को आगे कितनो को पीछे छोड़ता  है।
कलम रुपी नाव पर बैठ के 
शब्दों के पतवारों से विचारो की नदी में तैरता है।
                            

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

बीते लम्हे

बीते हुए लम्हों की और जब देखता हूँ।
अनगिनत यादो की परते उकेरता हूँ।
कुछ साँचे थे जो भर नही पाए।
कुछ नाते थे जो फल नही पाए।
कुछ रातें याद करके सिसक जाता हूँ।
कुछ बातें याद करके बिखर जाता हूँ।
कुछ लम्हे थे जो चीख छोड़ गए।
कुछ अपने थे जो सीख छोड़ गए।
कुछ सपने थे जो आज भी उथले हुए हैं।
कुछ हालात थे जो आज भी ठहरे हुए हैं।
कुछ घाव थे जो भर गए थे।                       
कुछ घाव थे उभर गए थे।
कुछ मनोभाव है जो आज भी खामोश हैं।
कुछ आभाव है जिनमें आज भी शोर है।
कुछ अरमान थे जिनकी कसक आज भी बाकी है
होंगे वो साकार उनकी ललक आज भी बाकि है।
                                           
                                             

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

बेनाम

"ले चल मुझको नींदों की नदी में,जी लू हरपल सपनो की गली में।
 खो जाऊ उस  गीतांजली में, लेकर के सपनो की लड़ी मैं।
 कल कल करती जल तरंग हो,सर सर करती स्वपन पतंग हो।
इठलाते बलखाते हम बहते जाएँ,कुछ खट्टी कुछ मीठी बाते कहते जाएँ।
रात की नौका और  सपनो की पतवार साथ हो,बीते ये सफर मस्ती से और  सुनहरी सुबह की आश हो।
लहरो के संगीत के साथ हवाओ का शोर हो,मन में हो निर्वेद जैसे भाव विभोर हो।
गुनगुनाओ तुम लहरो के साथ शब्द  मेरे हों,चारो ओर मेरे तुम्हारे वात्सल्य के फेरे हो।
नए शब्द बुनेंगे  नए अर्थ अर्थ गढ़ेंगे,प्रेम और  समर्पण से बने इस  रिश्ते को सार्थक करेंगे।
स्वपन में ही सही सफर तो शुरू कर लिया है,पहुँचूँगा मैं किनारे तक ये वादा भी कर लिया है।
झरने से गिरता जल जैसे पत्थरो से टकरा रहा है,मेरे मन में ही  जैसे तुम्हारा मन गुनगुना रहा है।
नदी के बहते जल सा साफ़ है ये मन तुम्हारा, और उतर गया है इस गहराई में ये सम्बन्ध हमारा।
मंजिल तो दिख नहीं रही अभी,मन में उमंग अपार है,
हाँ आएँगी की रुकावटे राह में हजार,पर मंजिल पाने का पूर्ण विश्वास है।
हाँ स्वपन में तो तुम्हारे साथ जल विहार  कर रहा हु,वास्तविकता में बस इन्तजार कर रहा हु। "

बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

सपने

हाँ मैं सपना देखता हूँ।
कुम्हार की तरह उन्हें तरासता हूँ।
सपना मिट्टी का होता है, 
वास्तविकता की चोट पड़ती है टूट जाता है।
सपना तो सपना ही है पीछे छूट  जाता है।

शिल्पकार की तरह स्वप्नमूर्ति बनाता हूँ।
स्वप्न में  ही उसे सुनहरे रंगो से सजाता हूँ।
सुबह की ठोकर से ये भी टूट जाती है।
सबह की आहट सारे रंगो को फूंक जाती है।

मैं फिर सपना देखता हूँ।
लोहार की तरह उसे मजबूती देता हूँ।
समय के प्रारहा से उसमें जंग लग जाती है।
स्वप्नवाहिनी फिर से थम जाती है।

मैं फिर सपना बुनता हूँ।
कवि की तरह शब्दों के तार मैं चुनता हूँ।
गुमनामी की रद्दी में,
ये कविता भी धूल  खाती है।
सपनो की लहर फिर टूट  जाती है।

मैं फिर एक सपना देखता हूँ।  
उसके सच होने का,
दूसरा सपना देखता हूँ।

स्वप्न बनते हैं-स्वप्न टूटते हैं।
अविरल रात दर रात ज्वार-भााटे सी,
स्वप्न लहर उठती और गिरती रहती है।


अन्नदाता

मै किसान हूँ,
सबकुछ कर के भी मोहताज हूँ।
सबके जीवन का आधार हूँ,
फिर भी मैं बेजार हूँ।
सबको अन्न का दान देता हूँ,
फिर भी मैं छोटा हूँ 
दिन रात मेहनत करता हूँ,
फिर भी एक-एक पाई को तरसता हूँ।
भोला-भाला हूँ,सीधा-साधा हूँ;
पसीना बहाकर कितनों को प्राण देता हूँ।

सदियों से शोषण सहता आया हूँ।
सबकुछ देकर भी आभाव में पलता आया हूँ।
हां मैं आह करता हूँ जाने कहाँ वो जाती है।
इस मतलबी दुनिया की खुदगर्जी में खो जाती है।
सबको खाना देकर भी, मेरी औलाद भूखे सो जाती है।

कागजो पे ये सरकार मेरे लिए बहुत कुछ करती है, 
हक़ीक़त मैं हर बार ठगती है।
जीवन के इस संघर्ष में बाल सफ़ेद हो जाते है, 
हाँ कुछ सपने है मेरे बिना पनपे सो जाते है।
मेरी तरह वो  भी खो जाते है।
हा मेरा खून भी खौलता है, एक द्वन्द सा चलता है 
अंतर्मन मुझसे कहता है तू  चुपचाप क्यों सहता है?
अपनी व्यथा क्यों ना कहता है।
हाँ एकदिन में गरजूंगा इन शोषणकर्ताओ पे बरसूँगा।
कब तक मैं यूँ तरसूँगा,अपने हक़ को मैं भी छीनूँगा।

"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"

तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...