शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

बेनाम

"ले चल मुझको नींदों की नदी में,जी लू हरपल सपनो की गली में।
 खो जाऊ उस  गीतांजली में, लेकर के सपनो की लड़ी मैं।
 कल कल करती जल तरंग हो,सर सर करती स्वपन पतंग हो।
इठलाते बलखाते हम बहते जाएँ,कुछ खट्टी कुछ मीठी बाते कहते जाएँ।
रात की नौका और  सपनो की पतवार साथ हो,बीते ये सफर मस्ती से और  सुनहरी सुबह की आश हो।
लहरो के संगीत के साथ हवाओ का शोर हो,मन में हो निर्वेद जैसे भाव विभोर हो।
गुनगुनाओ तुम लहरो के साथ शब्द  मेरे हों,चारो ओर मेरे तुम्हारे वात्सल्य के फेरे हो।
नए शब्द बुनेंगे  नए अर्थ अर्थ गढ़ेंगे,प्रेम और  समर्पण से बने इस  रिश्ते को सार्थक करेंगे।
स्वपन में ही सही सफर तो शुरू कर लिया है,पहुँचूँगा मैं किनारे तक ये वादा भी कर लिया है।
झरने से गिरता जल जैसे पत्थरो से टकरा रहा है,मेरे मन में ही  जैसे तुम्हारा मन गुनगुना रहा है।
नदी के बहते जल सा साफ़ है ये मन तुम्हारा, और उतर गया है इस गहराई में ये सम्बन्ध हमारा।
मंजिल तो दिख नहीं रही अभी,मन में उमंग अपार है,
हाँ आएँगी की रुकावटे राह में हजार,पर मंजिल पाने का पूर्ण विश्वास है।
हाँ स्वपन में तो तुम्हारे साथ जल विहार  कर रहा हु,वास्तविकता में बस इन्तजार कर रहा हु। "

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