सोमवार, 15 दिसंबर 2014

विश्व के निर्माता के लिए

खोज है तेरे अस्तित्व की 
अलौकिक तेरे कृतित्व की।
हवा में बहते तेरे नाम की,
सांसो में बसे तेरे एहसास की।
जमीं के इस छोर से लेकर,
उस छोर तक फैला सा है;
पर ना जाने क्यों धुंधला सा है।
तुझसे होता आगाज है, 
अंत भी तेरे  ही साथ है।
धरा से लेकर आसमान तक, 
लहरें तेरी गूंजती हैं,
तू सत्य है या भ्रम रूह पूछती है ?

बिना अस्तित्व के 
ये कैसी सत्ता है
कहते है तेरे नाम से 
हिलता हर पत्ता है।   
      
कही सुनता हूँ तू निराकार है
फिर कैसे बंधा तेरा अकार है।
कहते है तू आत्म में बसता है
फिर क्यों मनुष्य तुझे 
मंदिरों में ढूंढता है।

जब सच्चे मन से 
याद करने में ही तेरा साथ है
फिर जटिल रस्मो की क्या जात है?

कहते है परहित में ही तेरा साथ है
फिर पत्थर की मूरत पर
क्यों चढ़ता प्रसाद है?

मंजिल सबकी जब एक है 
फिर क्यों रास्ते को लेकर विभेद है

कहते है तू एक है 
फिर तेरे नाम पर 
बने क्यों पंथ अनेक हैं?

खोज रहा हूँ खोजता रहूँगा।
स्वयं के भीतर तेरा अस्तित्व,
ये सोचता रहूँगा।

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