बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

सपने

हाँ मैं सपना देखता हूँ।
कुम्हार की तरह उन्हें तरासता हूँ।
सपना मिट्टी का होता है, 
वास्तविकता की चोट पड़ती है टूट जाता है।
सपना तो सपना ही है पीछे छूट  जाता है।

शिल्पकार की तरह स्वप्नमूर्ति बनाता हूँ।
स्वप्न में  ही उसे सुनहरे रंगो से सजाता हूँ।
सुबह की ठोकर से ये भी टूट जाती है।
सबह की आहट सारे रंगो को फूंक जाती है।

मैं फिर सपना देखता हूँ।
लोहार की तरह उसे मजबूती देता हूँ।
समय के प्रारहा से उसमें जंग लग जाती है।
स्वप्नवाहिनी फिर से थम जाती है।

मैं फिर सपना बुनता हूँ।
कवि की तरह शब्दों के तार मैं चुनता हूँ।
गुमनामी की रद्दी में,
ये कविता भी धूल  खाती है।
सपनो की लहर फिर टूट  जाती है।

मैं फिर एक सपना देखता हूँ।  
उसके सच होने का,
दूसरा सपना देखता हूँ।

स्वप्न बनते हैं-स्वप्न टूटते हैं।
अविरल रात दर रात ज्वार-भााटे सी,
स्वप्न लहर उठती और गिरती रहती है।


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