सुनो जरा ठहरो शब्द जुलाहे
सुनी क्या तुमने मन की आहें
तुम पीड़ाओं को बुन लो
संवेदनाओं की चुन लो
पुकारें तुमको अनसुनी चाहें।
छोड़ो शब्दों के रेशो
बस भावों के भरोसे
सुनो जरा ठहरो शब्द जुलाहे
भूल जाओ तुम
शब्दों का ये चोला,
सुंदर है या नही।
देखना बस इतना कि
स्वछंद भावों का,
गहन समुंदर है या नही।
सुनो जरा ठहरो शब्द जुलाहे
बुन लो कपड़ा कोई
अपने अजीब से सपनों का।
ठिठक कर बैठे हैं जो
उन अंतर्मुखी मसलों का।
उतारों शब्दों में गहन आभावों को,
सी लो ऐसे ही बीते घावों को।
सुनो जरा ठहरो शब्द जुलाहे
कह नही पाया तुमसे कितनी ही बातें।
जब नही बुनते हो तुम शब्दों के सादे धागे
रंगों की परतों में छिप जाती हैं खरी बातें।
सुनो जरा ठहरो शब्द जुलाहे
जो हों सपाट,सीधे,सहज,सरल से
बुनो शब्द रेशे
जो हों मासूम भावों की फसल से।
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