ठहरने को मुनासिब
इक जगह नही थी।
लौटने को मुनासिब
इक वजह नही थी।
अनवरत चलता रहा
पलायन का सिलसिला।
स्थायित्व रूठा रहा मुझसे,
उसे मनाने कि
मुझे गरज नही थी।
चंद रातों को ठहरकर
कुछ ख़्वाब देखे।
चंद दिनो की भागमभाग में
तोड़ दीं ख़्वाबों की कड़ियां।
ख़्वाबों के कारोबार में
अब बसर नही थी।
दिल लगाने को
कुछ पल ही ढूंढे।
दिलों में बसने की
कोई जुगत नही की।
"चल अविनाश अब चलते है मन की उड़ान हम भरते हैं. बंद आँखों की बातो को,अल्हड़ से इरादों को, कोरे कागज पर उतारेंगे अंतर्मन को थामकर,बाते उसकी जानेंगे चल अविनाश अब चलते है मन की उड़ान हम भरते है"
मंगलवार, 26 अप्रैल 2022
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