मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

.…......

ठहरने को मुनासिब
इक जगह नही थी।
लौटने को मुनासिब
इक वजह नही थी।

अनवरत चलता रहा
पलायन का सिलसिला।
स्थायित्व रूठा रहा मुझसे,
उसे मनाने कि
मुझे गरज नही थी।

चंद रातों को ठहरकर
कुछ ख़्वाब देखे।
चंद दिनो की भागमभाग में
तोड़ दीं ख़्वाबों की कड़ियां।
ख़्वाबों के कारोबार में
अब बसर नही थी।

दिल लगाने को
कुछ पल ही ढूंढे।
दिलों में बसने की
कोई जुगत नही की।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"

तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...