रविवार, 28 जून 2015

मन-अंतर्मन

"एक ओर मन है तो दूजा अंतर्मन
है नदी के दो किनारों से
  बहते समांतर दोनों एक दुसरे के
  लक्ष्य दोनों का एक ही है 
  गिरना तो सागर में ही
  मन फिरता इधर उधर प्यासे सा 
  दूजा खुद में ढूढ़े मार्ग तृप्त होने का
  एक चंचल से पंछी सा है
  एक दरिया है निर्वेद का
  एक कौतुहल को बढ़ाता है
  दूजा शांतचित सा बनाता है
    मन छणिक सुख का देयता है
  अंतर्मन स्थायित्व का प्रणेता है"

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