आज का कवि सोया हुआ है
जीवन की आपाधापी में खोया हुआ है।
हृदय आशंकित है आज ये चिंतित है।
कला की कुशलता और अर्थ की विफलता के तले कुंठित है।
सार्थक कला और आकर्षक कला में चल रहा द्वन्द है,
आज का कलमकार कहाँ स्वच्छंद है।
एक ओर कठिन सामाजिक समस्याओं के
हृदय विदारक वर्णन को अवलम्बित है,
दूसरी ओर किसी के सौंदर्य वर्णन को आकर्षित है।
स्वपनिम प्रतिबिम्बों और वास्तविक चलचित्रों के बीच
डोल रहा है,
दबी सी जुबान में न जाने क्या बोल रहा है।
गूढ़ शब्दों को ढूंढता है,कुछ हटके लिखने की सोचता है।
काव्य की सरिता टेढ़ी-मेढ़ी राहें बनाती हुई बहती है,
कवि की कल्पना नौका सहमे-सहमे पतवारों से चलती है।
कवि जब आर्थिक आवश्यकताओ की ओर देखता है,
शब्दों के उपबंध छोड़कर अर्थ प्राप्ति के साधन खोजता है।
शब्दों के उपबंध छोड़कर अर्थ प्राप्ति के साधन खोजता है।
मात्र कवि होना आज साधनहीन जीवन का रास्ता है,
इसी चिंतन में व्यक्ति अपने अंतर के
न जाने कितने कवियों को मारता है।
आज कवि जब लोकप्रियता की और देखता है,
फूहड़ और रंगीन शब्दों को टटोलता है,
क्या यही है पैमाना इसी द्वन्द में मन डोलता है।
जब इन्द्रिय सुख की और देखता है,
स्त्री के श्रृंगार,सुबह के ऐश्वर्य,
संध्या के सौंदर्य में शब्द जोड़ता है।
जब राजनीति की ओर देखता है
जब राजनीति की ओर देखता है
नेताओ की टाँग खींचता है,
शब्दरूपी पत्थरो से उनपर वार करता है।
कवि जब शोषित वर्ग की ओर जाता है,
कवि जब शोषित वर्ग की ओर जाता है,
अन्याय के प्रति कलम से तीर चलाता है।
जब कुरीतियों और अपराधो की और देखता है,
जब कुरीतियों और अपराधो की और देखता है,
तिल- तिल कर मरती मानवता को शब्दों में उकेरता है।
जब रति के फेर प्रेमजाल में पड़ता है,
जब रति के फेर प्रेमजाल में पड़ता है,
प्रियतम के माधुर्य को कविता में व्यक्त करता है।
जब अश्रुरित अक्छो से विरह वेदना सहता है,
जब अश्रुरित अक्छो से विरह वेदना सहता है,
दीन हीन संगीन सा प्रेम अभाव को कहता है।
कवि के मन का चंचल अश्व हर और दौड़ता है,
न जाने कितनो को आगे कितनो को पीछे छोड़ता है।
कलम रुपी नाव पर बैठ के
कलम रुपी नाव पर बैठ के
शब्दों के पतवारों से विचारो की नदी में तैरता है।
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