गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

"फिर याद किया है तुमने,पतझड़ में"

फिर याद किया है तुमने,पतझड़ में,
फिर बहार रूठ गई क्या बागों से?
फिर टूट गए हो क्या किसी ठोकर से?
फिर भटक रहे हो निरीह प्यासे से?

फिर याद किया है तुमने,पतझड़ में,
फिर बहार रूठ गयी क्या बागों से?

अब मैं कोई अथाह समुद्र नही।
अब मैं कोई सदाबहार वन नही।
अब जर्द भरा एक आँगन हूँ।
अब गर्द से धूसरित चौखट हूँ।

क्यों याद किया तुमने पतझड़ में?
अब कैसे लाऊं बसंत मै।
सब कैसे करूँ जीवंत मै।
जलहीन पड़ी एक धारा हूँ,
अब कैसे सींचू पौधों को।
अब कैसे खिलाऊँ फूल मै।
अब कैसे सजाऊँ बागों को।

फिर याद किया तुमने पतझड़ में।
फिर बहार रूठ गई क्या बागों से।

~ अविनाश कुमार तिवारी

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