गुरुवार, 17 सितंबर 2015

मेरी कविता

"उत्साहित था,
जब उभरी थी तुम
पहली बार।
सरसराती नजरो से,
तो कभी एकटक देखा तुम्हे,
असीम संतुष्टि संग लिए,
उभरी थी तुम।
मैंने ही गढ़ा था तुम्हे,
मेरे अंतर्मन की ,
आभा थी तुम।
मेरी सिसकियो,
खिलखिलाहट,
मेरी फिसलन,
प्राप्तियों,
सबको तुम आवाज देती हो।
मेरी सच्ची साथी,
मेरी आशा,शांति,
मेरे अंतर्मन की,
परिभाषा हो तुम।"


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