शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

शोर

ना जाने कैसा शोर है
जो मुझमें हर पल रहता है.
अनसुने अनजाने से,
कुछ लफ्ज उपजते रहते है.
नदी की जलधारा से
अनवरत बहते रहे हैं।
कुछ छूट गया है शायद मुझसे,
या कोई रूठा सा है.
ख्वाब तो कभी देखे नहीं मैंने,
फिर ना जाने क्या टूटा सा है।
कुछ लफ्ज कहने है 
कुछ सुनने है,
लफ्जो की ईंटे जोड़कर 
सपने कई बुनने है।
टूट गए हैंं कई रिश्ते 
रूठ गए है कई अपने.
जख्मो को भरना है 
दरख्तो हो सींचना है।
समय की धारा मोड़ कर 
सब मुमकिन करना है। 

भावनाओ के बहाव में
मैं बहता जा रहा हूँ।
मिल रहे है दर्द जो 
बस सहता जा राह हु.
जाने कब कोई आया 
और कैसे चला गया
हाँ कुछ तो है खाली सा,
हार के रह गया 
अब हर लम्हा है 
बस सवाली सा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"

तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...