"विस्तृत हो तुम,
मन के व्योम में,
प्राणवायु की तरह।
उपस्थति हो प्रति-छण,
हृदय स्पंदन में।
लब्धता है तुम्हारी,
मन के हर कोने में।
सृष्टि है तुमसे ही,
इन विचारों की,
हर आवृत्ति में तुम ही हों।
मेरा तो आतिथ्य है बस,
इस ह्रदय में ,
घर ये तुम्हारा है।
अस्त्तिव हैं इसका,
तुम्हारी विद्यमानता से,
और अपूर्ण हैं ये,
तुम्हारी अनुपस्थिति से। "