मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

सार्थकता की ओर

सार्थकता से दूर
जा रहा है जीवन
दबी सी आवाज में
मुझसे कुछ
कह रहा है जीवन

इन छणिक
मनोभावों की पूर्ति में
लक्ष्य  से पीछे
हट रहा है जीवन

क्या मनोइछा
की पूर्ति ही सार्थकता है
नहीं ये तो स्वार्थपरता है

नहीं अब सार्थकता की
और जाना है
जीवन में संयम को
अपनाना है
बस लक्ष्य  की ओर
ध्यान लगान है

छोड़ कर सारे
झमेलों को
दुनियाभर के
मेलो को
बिना खिट -पिट
बिना शोर
ख़ामोशी से बढ़ना है
लक्ष्य  की ओर

लक्ष्य  हो ऐसा की
बनु में इतिहास
फैले नाम
जैसे फैला
ये आकाश

करे लोग मुझपर
विश्वास
मेरे जीवन से हो
संसार को लाभ

हाँ यही लक्ष्य  है
यही सत्य है
यही सार्थक है
यही प्रवर्तक है।

शनिवार, 11 अप्रैल 2015

उषा उदय

उषा उदित हुई स्वछंद     
टूटे निद्रा के उपबंध
                                                           
हुई उद्दीपित नवल उमंग                                                    संरचित हुए नव प्रबन्ध्
                                                                        
है वातावरण शांतचित्त सा                                               
होने को है आगमन प्रदीप का                                             मुख दर्पित हो प्रियतम का                                              
गुजरे दिवस स्वर्णिम सा

उत्साह को अग्रिम कर
ठिठक को विष्मित कर

उद्धम की मजबूत जड़ो से
निर्मित हो वृक्ष ठोस धड़ो से

सृजित हो शाखाये सआधार
हर पात उपजे नवाचार।

शब्दार्थ-
उषा- सूरज उगने से पहले का समय
उपबंध - बंधन
उद्दीपित- उत्त्पन्न होना                                                      संरचित  - बनना/रचना होना                                              प्रदीप - रौशनी देने वाला/सूरज
विष्मित - भ्रमित करना                                                    उद्धम् - नई चीज बनाना/स्थापित करना                               पात - पत्ता
नवाचार- नई  विचारधारा।                         

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

भावना

भावनाओ की घनी घटाएं
फैली हुई हैं मन के छितिज पर,
अनुराग भी है और द्वेष भी है
कोलाहल भी है और  निर्वेद भी है 
चाह भी है और त्याग भी है 
आकांक्षा भी है और संतुष्टि भी है
वात्सल्य भी है और घृणा भी 
संयम भी है और अधीरता भी 
आशा भी है और निराशा भी 
उत्साह ही है और आलस्य् भी 
भय भी है और निडरता भी 
जड़ता भी है और प्रवाह भी 
तरह-तरह की भावनाओ का ज्वार 
पल-पल उठता और गिरता रहता है
किसी के लिए प्रेम उद्दीपित होता है 
तो किसी के लिए क्रोध आवेशित होता है 
किसी के इक्षा रखता हूँ
तो किसी से दूर भागता हूँ
कुछ करने को तत्पर रहता हूँ हर-पल 
तो कुछ को टालता हूँ जब-तब 
चंचल मन यहाँ वहा विचरता रहता है।
इसमें हर क्षण नया भाव उभरता रहता है।

                       

"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"

तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...