बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

अन्नदाता

मै किसान हूँ,
सबकुछ कर के भी मोहताज हूँ।
सबके जीवन का आधार हूँ,
फिर भी मैं बेजार हूँ।
सबको अन्न का दान देता हूँ,
फिर भी मैं छोटा हूँ 
दिन रात मेहनत करता हूँ,
फिर भी एक-एक पाई को तरसता हूँ।
भोला-भाला हूँ,सीधा-साधा हूँ;
पसीना बहाकर कितनों को प्राण देता हूँ।

सदियों से शोषण सहता आया हूँ।
सबकुछ देकर भी आभाव में पलता आया हूँ।
हां मैं आह करता हूँ जाने कहाँ वो जाती है।
इस मतलबी दुनिया की खुदगर्जी में खो जाती है।
सबको खाना देकर भी, मेरी औलाद भूखे सो जाती है।

कागजो पे ये सरकार मेरे लिए बहुत कुछ करती है, 
हक़ीक़त मैं हर बार ठगती है।
जीवन के इस संघर्ष में बाल सफ़ेद हो जाते है, 
हाँ कुछ सपने है मेरे बिना पनपे सो जाते है।
मेरी तरह वो  भी खो जाते है।
हा मेरा खून भी खौलता है, एक द्वन्द सा चलता है 
अंतर्मन मुझसे कहता है तू  चुपचाप क्यों सहता है?
अपनी व्यथा क्यों ना कहता है।
हाँ एकदिन में गरजूंगा इन शोषणकर्ताओ पे बरसूँगा।
कब तक मैं यूँ तरसूँगा,अपने हक़ को मैं भी छीनूँगा।

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