गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

बीते लम्हे

बीते हुए लम्हों की और जब देखता हूँ।
अनगिनत यादो की परते उकेरता हूँ।
कुछ साँचे थे जो भर नही पाए।
कुछ नाते थे जो फल नही पाए।
कुछ रातें याद करके सिसक जाता हूँ।
कुछ बातें याद करके बिखर जाता हूँ।
कुछ लम्हे थे जो चीख छोड़ गए।
कुछ अपने थे जो सीख छोड़ गए।
कुछ सपने थे जो आज भी उथले हुए हैं।
कुछ हालात थे जो आज भी ठहरे हुए हैं।
कुछ घाव थे जो भर गए थे।                       
कुछ घाव थे उभर गए थे।
कुछ मनोभाव है जो आज भी खामोश हैं।
कुछ आभाव है जिनमें आज भी शोर है।
कुछ अरमान थे जिनकी कसक आज भी बाकी है
होंगे वो साकार उनकी ललक आज भी बाकि है।
                                           
                                             

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

बेनाम

"ले चल मुझको नींदों की नदी में,जी लू हरपल सपनो की गली में।
 खो जाऊ उस  गीतांजली में, लेकर के सपनो की लड़ी मैं।
 कल कल करती जल तरंग हो,सर सर करती स्वपन पतंग हो।
इठलाते बलखाते हम बहते जाएँ,कुछ खट्टी कुछ मीठी बाते कहते जाएँ।
रात की नौका और  सपनो की पतवार साथ हो,बीते ये सफर मस्ती से और  सुनहरी सुबह की आश हो।
लहरो के संगीत के साथ हवाओ का शोर हो,मन में हो निर्वेद जैसे भाव विभोर हो।
गुनगुनाओ तुम लहरो के साथ शब्द  मेरे हों,चारो ओर मेरे तुम्हारे वात्सल्य के फेरे हो।
नए शब्द बुनेंगे  नए अर्थ अर्थ गढ़ेंगे,प्रेम और  समर्पण से बने इस  रिश्ते को सार्थक करेंगे।
स्वपन में ही सही सफर तो शुरू कर लिया है,पहुँचूँगा मैं किनारे तक ये वादा भी कर लिया है।
झरने से गिरता जल जैसे पत्थरो से टकरा रहा है,मेरे मन में ही  जैसे तुम्हारा मन गुनगुना रहा है।
नदी के बहते जल सा साफ़ है ये मन तुम्हारा, और उतर गया है इस गहराई में ये सम्बन्ध हमारा।
मंजिल तो दिख नहीं रही अभी,मन में उमंग अपार है,
हाँ आएँगी की रुकावटे राह में हजार,पर मंजिल पाने का पूर्ण विश्वास है।
हाँ स्वपन में तो तुम्हारे साथ जल विहार  कर रहा हु,वास्तविकता में बस इन्तजार कर रहा हु। "

बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

सपने

हाँ मैं सपना देखता हूँ।
कुम्हार की तरह उन्हें तरासता हूँ।
सपना मिट्टी का होता है, 
वास्तविकता की चोट पड़ती है टूट जाता है।
सपना तो सपना ही है पीछे छूट  जाता है।

शिल्पकार की तरह स्वप्नमूर्ति बनाता हूँ।
स्वप्न में  ही उसे सुनहरे रंगो से सजाता हूँ।
सुबह की ठोकर से ये भी टूट जाती है।
सबह की आहट सारे रंगो को फूंक जाती है।

मैं फिर सपना देखता हूँ।
लोहार की तरह उसे मजबूती देता हूँ।
समय के प्रारहा से उसमें जंग लग जाती है।
स्वप्नवाहिनी फिर से थम जाती है।

मैं फिर सपना बुनता हूँ।
कवि की तरह शब्दों के तार मैं चुनता हूँ।
गुमनामी की रद्दी में,
ये कविता भी धूल  खाती है।
सपनो की लहर फिर टूट  जाती है।

मैं फिर एक सपना देखता हूँ।  
उसके सच होने का,
दूसरा सपना देखता हूँ।

स्वप्न बनते हैं-स्वप्न टूटते हैं।
अविरल रात दर रात ज्वार-भााटे सी,
स्वप्न लहर उठती और गिरती रहती है।


अन्नदाता

मै किसान हूँ,
सबकुछ कर के भी मोहताज हूँ।
सबके जीवन का आधार हूँ,
फिर भी मैं बेजार हूँ।
सबको अन्न का दान देता हूँ,
फिर भी मैं छोटा हूँ 
दिन रात मेहनत करता हूँ,
फिर भी एक-एक पाई को तरसता हूँ।
भोला-भाला हूँ,सीधा-साधा हूँ;
पसीना बहाकर कितनों को प्राण देता हूँ।

सदियों से शोषण सहता आया हूँ।
सबकुछ देकर भी आभाव में पलता आया हूँ।
हां मैं आह करता हूँ जाने कहाँ वो जाती है।
इस मतलबी दुनिया की खुदगर्जी में खो जाती है।
सबको खाना देकर भी, मेरी औलाद भूखे सो जाती है।

कागजो पे ये सरकार मेरे लिए बहुत कुछ करती है, 
हक़ीक़त मैं हर बार ठगती है।
जीवन के इस संघर्ष में बाल सफ़ेद हो जाते है, 
हाँ कुछ सपने है मेरे बिना पनपे सो जाते है।
मेरी तरह वो  भी खो जाते है।
हा मेरा खून भी खौलता है, एक द्वन्द सा चलता है 
अंतर्मन मुझसे कहता है तू  चुपचाप क्यों सहता है?
अपनी व्यथा क्यों ना कहता है।
हाँ एकदिन में गरजूंगा इन शोषणकर्ताओ पे बरसूँगा।
कब तक मैं यूँ तरसूँगा,अपने हक़ को मैं भी छीनूँगा।

"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"

तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...