मंगलवार, 16 जनवरी 2018

एक पत्ते और उस टहनी के बीच की बातें अधूरी रह गईं

"एक टहनी जो पेड़ से अलग हो गई।
पेड़ के एक पत्ते और उस टहनी बीच की बातें अधूरी रह गईं।
क्यों अलग कर दिया लकड़हारे ने टहनी को पेड़ से?
क्यों रह गईं दोनों की बातें अधूरी?
ऐसे ही कितना कुछ अधूरा रह जाता हैं। "

ये वो दौर था जब सांप्रदायिक विचार अपने चरम पर थे। यही वो दौर था जब दोनों की भेंट  हुई थी। बलूचिस्तान  क्षेत्र  का एक छोटा सा गाँव था। समरसपुर,, समरस का एक अर्थ घुलमिल कर रहना भी होता है। उसी प्रकार उस गाँव में सभी समुदायों के लोग सांप्रदायिक और जातीय बंधनो से परे मिलकर रहते थे। सिख और मुस्लिम सम्प्रदायों की बहुलता थी वहां।

मंजीत और साहिल दो 12 -13 वर्षीय बालक पेड़ रूपी उस गाँव की एक टहनी और पत्ते की तरह एक दुसरे  के घनिष्ट  मित्र थे।

ये 1947  का भारत की स्वतंत्रता , विभाजन और राजनितिक उथल-पुथल का दौर था। देश  में सांप्रदायिक अलगाव भी अपनी परिणीति पर था। सभी सिख परिवार बलूचिस्तान जो की पाकिस्तान का हिस्सा था उसको छोड़ कर भारत जा रहे थे।
                              इसी  क्रम  में मंजीत का परिवार भी समरसपुर छोड़ कर भारत की और आ  गया। साहिल और मंजीत भी एक दूसरे से अलग हो गए।

                  "मंजीत रूपी टहनी पेड़ से अलग ही गई। पत्ते रूपी साहिल और उसकी बातें अधूरी रह गईं।
वो लकड़हारा साम्प्रदायिकता थी जिसने टहनी और पेड़ से अलग कर दिया।"

बुधवार, 10 जनवरी 2018

सन्दर्भ ऐतिहासिक है पर वर्तमान भी बहुत हद तक प्रभावित है

आधुनिक विद्वान भारत को आम लोगो की नजर से देखना समझना नहीं चाहते। वो तो अपनी ही कृत्रिम दुनिया में रहते हैं। उनको इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता कि भारत के आम नर-नारियों का दूसरे लोगो से,सृष्टि से या दूसरे जीवो से क्या सम्बन्ध है? उनके लिये पश्चिमी मानदंडो पर खरा उतर जाना ही अधिक आवश्यक है।
वास्तव में आम आदमी के जीवन में जाने अनजाने कितना पश्चिमीकरण हुआ है,हुआ भी है या नहीं ऐसे सवालो पर सार्वजनिक जीवन में चर्चा सामान्यतः नहीं होती। जो लोग भी सार्वजनिक जीवन में हैं, उनको आम लोगो की वास्तविक स्थिति के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। जिन्हें जानकारी है वो सार्वजनिक जीवन के विमर्श में भाग नहीं लेते और आम लोगो के पक्ष का प्रतिनिधित्व करने नहीं आते। आधुनिक भारत के पढ़े लिखे लोगो को लगता है कि हमारे देश के साधारण लोग तो आलसी हैं। अंग्रेजो ने जो जो कहा और दोहराया कि "तुम्हारे ग्रंथो में ऐसा लिखा है", यह पढ़े लिखे भारतियों के मन में बस गया। जैसे अंग्रेजो ने जानबुझकर यह मिथक गढ़ा कि हजारो बरस से हमारे यहाँ दरिद्रता है , वर्षो से हमारे यहाँ छुआछुत कायम है। ऐसी मान्यताओ का कोई ऐतिहासिक आधार नही है। ऐसे मिथक अंग्रेजो द्वारा अपने राज्य को वैधता देने के लिए शोध के नाम पर गढे गए।
परन्तु मानसिक रूप से बीमार इन लोगो ने इसे बिना परीक्षण किये स्वीकार कर लिया। किसी ने ये पूछना जरुरी नही समझा की इन बातों के ऐतिहासिक आधार कहाँ है? पूछने पर कुछ कुतर्की कहते हैं की मनुस्मृति में है या कहीं और है। ये भी नही कहते की मनुस्मृति में क्या है?? इसके अतिरिक्त अन्य कौन कौन सी स्मृतियाँ इन स्मृतियों का आपस में क्या संबंध है इनका तात्कालीन समाज से क्या सम्बन्ध था? इनका समाज पर क्या प्रभाव था? था भी या नहीं ? ऐसे प्रश्नों को दरकिनार करना आजकल भारत में बोद्धिक फैशन सा बन गया था और इसके निर्माण में साम्राज्यवादियों ने बहुत मेहनत की थी।
राबर्ट क्लाईव के ज़माने में ही अंग्रेजो को समझ आ गया था की भारतियों को कुछ भी तय करने में देर लगती है।भारतीय लोग स्वाभाव से योजनाबद्ध नहीं होते। विरोधियो द्वारा कुछ भी अचानक करने पर वो लड़खड़ा जाते हैं।
भारत के लोग हवा का रुख देखकर अपनी रणनिति बादल लेते है। अगर परिस्थितियां बदली तो भारत के पढ़े लिखे लोग आसानी से बदल जाते हैं। मध्यकाल में ये पढ़े लिखे लोग आसानी से अरबी-फारसी में सूफियों की भाषा और इस्लामिक प्रगतिशीलता के गीत गाने लगे। यही कार्य उन्होंने अंग्रेजी राज में भी किया।
और अंग्रेजो की देखा देखी भारत की सभ्यता और संस्कृति की कठोर आलोचना करना पढ़े लिखे भारतियों के बीच लोकप्रिय हो गया।
क्रमशः ........................

"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"

तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...