रविवार, 28 जून 2015

मन-अंतर्मन

"एक ओर मन है तो दूजा अंतर्मन
है नदी के दो किनारों से
  बहते समांतर दोनों एक दुसरे के
  लक्ष्य दोनों का एक ही है 
  गिरना तो सागर में ही
  मन फिरता इधर उधर प्यासे सा 
  दूजा खुद में ढूढ़े मार्ग तृप्त होने का
  एक चंचल से पंछी सा है
  एक दरिया है निर्वेद का
  एक कौतुहल को बढ़ाता है
  दूजा शांतचित सा बनाता है
    मन छणिक सुख का देयता है
  अंतर्मन स्थायित्व का प्रणेता है"

बुधवार, 24 जून 2015

मै राजनीति हूँ

मै राजनीति हूँ। 
हाँ स्वार्थियों से घिरी सी हूँ
कोई मुझे कीचड़ कहता है
हर कोई नफरत करता है
हाँ कभी कोई आता है
ईमानदारी का
डंका बजता है  
उम्मीदे नई जगाता है
फिर रंग नय दिखाता है
इस भूलभुलैया में खोकर
वो भी गुम हो जाता है
वो भी खुद को छोड़कर
मक्कारी और धोखेबाजी
को अपनाता है
ईमानदारी क्या अवगुण है
क्यों ये मुझसे दूर है
मै धूर्तो को दासी हूँ। 
उन्हें ही सर पे बिठाती हूँ। 
फिर भी उम्मीद में बैठी हूँ। 
दबी सी जुबान में कहती हूँ। 
बचा लो मेरे दामन को
सतगुणो से सींचकर
सजा तो तुम इस आँगन को 

"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"

तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...