बुधवार, 20 मई 2015

सवाल- जवाब

जरा सी सहमी जरा खामोश सी है
रात की अदा ये शोख़ सी है
ये शांति की रचना है, अलबेला साज है
इसका ना अंत है ना ही आगाज है
मै अंजान हु आने वाले पल से
हु बेखबर इसमें सिमटता जा रहा हु
किसकी कमी है?? क्यों अकेला हु???
सारे रास्ते बंद है क्या?? मंजिल किधर है??
ढूंढ़ रहा हु रौशनी टटोल रहा हु बंद आँखों से
कहा है सवेरा?? नाराज क्यों है मुझसे ???
क्या मैंने साहस छोड़ा था???
तब इसने मुह मोड़ा था????
चलो फिर आगाज में करता हु
फिर से आहे भरता हु
अब ना साहस छोडूंगा
कर्तव्य से मुख ना मोडूंगा
थपेड़े सारे सह लूँगा
अब ना हो आगाज रात का
ऐसा अंत मै करूँगा
फिर सवेरा उल्फत करेगा
बाहों में मुझको भरेगा"

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