सोमवार, 24 नवंबर 2014

मन में बहती सरिता


बहती हो वो हवा सी,
                            छा जाती हो घटा सी।
सोंधी सी जैसे मिटटी हो,
                          ओंस में भीगी पत्ती हो।
झरने सी वो निर्झर हो,
                            हिरणी सी वो चंचल हो।
सात रंगो की छाप हो,
                            सात सुरों का राग हो।
निशा सी उसकी छाया हो,
                          चाँद सी उसकी काया हो।
शराब सी वो नशीली हो
                           अनसुलझी सी पहेली हो।
बाह जाऊँ उसके वेग में
                             खो जाऊँ उसके तेज में।
बचपन सी नादानी हो,
                           परियो की वो कहानी हो।
सभी गुणों का उल्लेख हो,
                              मन से लिखा वो लेख हो।
दसों रसों का स्थाई भाव हो,
                               महाकाव्य सा प्रभाव हो।
प्रकृति सी वो संपन्न हो,
                                 पाकर उसे मन प्रसन्न हो।
                   

शनिवार, 8 नवंबर 2014

कवि का मन

आज का कवि सोया हुआ है 
जीवन की आपाधापी में खोया हुआ है।
हृदय आशंकित है आज ये चिंतित है।

कला की कुशलता और अर्थ की विफलता के तले कुंठित है। 
सार्थक कला और आकर्षक कला में चल रहा द्वन्द है,
आज का कलमकार कहाँ स्वच्छंद है। 

एक ओर कठिन सामाजिक समस्याओं के 
हृदय विदारक वर्णन को अवलम्बित है, 
दूसरी ओर किसी के सौंदर्य वर्णन को आकर्षित है। 

स्वपनिम प्रतिबिम्बों और वास्तविक चलचित्रों के बीच 
डोल रहा है,
दबी सी जुबान में न जाने क्या बोल रहा है।  
 गूढ़ शब्दों को ढूंढता है,कुछ हटके लिखने की सोचता है। 

 काव्य की सरिता टेढ़ी-मेढ़ी राहें बनाती हुई बहती है, 
 कवि की कल्पना नौका सहमे-सहमे पतवारों से चलती है। 
कवि जब आर्थिक आवश्यकताओ की ओर देखता है,
शब्दों के उपबंध छोड़कर अर्थ प्राप्ति के साधन खोजता है।  
मात्र कवि होना आज साधनहीन जीवन का रास्ता है,
इसी चिंतन में व्यक्ति अपने अंतर के 
न जाने कितने कवियों को मारता है। 
आज कवि जब लोकप्रियता की और देखता है,
फूहड़ और रंगीन शब्दों को टटोलता है,
क्या यही है पैमाना इसी द्वन्द में मन डोलता है। 
जब इन्द्रिय सुख की और देखता है,
स्त्री  के श्रृंगार,सुबह के ऐश्वर्य,
संध्या के सौंदर्य में शब्द जोड़ता है।
जब राजनीति की ओर देखता है 
नेताओ की टाँग खींचता है, 
शब्दरूपी पत्थरो से उनपर वार करता है।
कवि जब शोषित वर्ग की ओर  जाता है,
अन्याय के प्रति कलम से तीर चलाता है।
जब कुरीतियों और अपराधो की और देखता है,
तिल- तिल कर मरती मानवता को शब्दों में उकेरता है।
जब रति के फेर प्रेमजाल में पड़ता है,
प्रियतम के माधुर्य को कविता में  व्यक्त करता है।
जब अश्रुरित अक्छो से विरह वेदना सहता है,
दीन हीन संगीन सा प्रेम अभाव को कहता है।
कवि के मन का चंचल अश्व  हर और दौड़ता है, 
न जाने कितनो को आगे कितनो को पीछे छोड़ता  है।
कलम रुपी नाव पर बैठ के 
शब्दों के पतवारों से विचारो की नदी में तैरता है।
                            

"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"

तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...