हर रोज मरता हूँ,
हर रोज जीता हूँ।
न मैं मर पाया पूरा,
मेरा जीना भी रह गया थोड़ा।
कुछ तो रह गया अधूरा।
जीना भी है,
और मरना भी है।
ये अवश्यसंभावी है,
सबको करना ही है।
जिया तब जब मन,
खुशहाल रहा।
मरा तब जब अंदर से,
बदहाल रहा।
ये खुशहाली-बदहाली,
धूप छाँव जैसी हैं।
कदमों से टकराते,
आते-जाते पड़ाव जैसी हैं।
- अविनाश कुमार तिवारी