शनिवार, 23 दिसंबर 2017

तुम पहली बार रूठे थे सच में

 "सुर्ख लबों से,
  तीक्ष्ण शब्द,
  बरस पड़े थे,
  बरबस।

  आँखों में भी,
  मुखातिब हो रही थी,
  अनमनी और,
  बेरुखी सी।

  न जाने क्यों,
  ऐसा रुख,
  इख़्तियार किया था,
  तुमने।

  इतनी झुंझलाहट,
  इतने बेरुखात,
  पहली दफा थे।

  बेसवाल और,
  बेजवाब था मै।

  हाँ ये वहीँ दिन था,
  जब बहुत से,
  झूठे नखरो के बाद,
  तुम पहली बार,
  रूठे थे सच में।

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

कैसा ये द्वैतभाव है

नींदे बेचैन हो गईं हैं,
कसक सी उठी है।
बलखा रहीं हैं साँसे,
लहर सी उठी है। "

राहें टेढ़ी-मेढ़ी हैं,
कदम यहाँ-वहाँ हैं।
आँखों में मद सा है,
जर्रा-जर्रा बहका है।

कुछ ढल रहा है,
या कुछ उभर रहा है।
कुछ टुटा है,
या कुछ जुड़ रहा है।

पतझड़ है या बहार है,
संभावनाएँ तो अपार हैं।
मातम है या त्योहार हैं,
पुचकार है या दुत्कार है।

उदय है या अस्त है,
अंगड़ाई है या जम्हाई हैं।
वात्सल्य है या रुसवाई है,
मिलन हैं या जुदाई हैं।

कैसा ये द्वैतभाव है,
प्राप्ति है के आभाव है।
उलझा है ये मसला,
ये क्या है ये कैसा है।

गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

"फिर याद किया है तुमने,पतझड़ में"

फिर याद किया है तुमने,पतझड़ में,
फिर बहार रूठ गई क्या बागों से?
फिर टूट गए हो क्या किसी ठोकर से?
फिर भटक रहे हो निरीह प्यासे से?

फिर याद किया है तुमने,पतझड़ में,
फिर बहार रूठ गयी क्या बागों से?

अब मैं कोई अथाह समुद्र नही।
अब मैं कोई सदाबहार वन नही।
अब जर्द भरा एक आँगन हूँ।
अब गर्द से धूसरित चौखट हूँ।

क्यों याद किया तुमने पतझड़ में?
अब कैसे लाऊं बसंत मै।
सब कैसे करूँ जीवंत मै।
जलहीन पड़ी एक धारा हूँ,
अब कैसे सींचू पौधों को।
अब कैसे खिलाऊँ फूल मै।
अब कैसे सजाऊँ बागों को।

फिर याद किया तुमने पतझड़ में।
फिर बहार रूठ गई क्या बागों से।

~ अविनाश कुमार तिवारी

मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

उम्मीदों का आसमान

अपनी उम्मीदों एक आसमान सबका होता है। वो उम्मीदें कभी रातों में  ख्वाबों में ढल जाती हैं .... कभी दिन की बेताबी में उतर जातीं हैं।  उम्मीदों के तारे कभी टूट कर गिरते हैं..... तो कभी ओझल हो जाते हैं अमावस्या  के कारण। अनंत होता है उम्मीदों का ये आसमान जिसके छोरो को नापना नापना संभव नहीं होता। इसमें बहुत सी उम्मीदों आकाशीय  पिण्ड बनकर उभरती और उजडती रहती हैं। कुछ उम्मीदें पूरी न होकर बौने ग्रह की तरह,
गतिमान रहती हैं। पूरी होने वाली उम्मीदों चमक जाती हैं ध्रुव तारें की तरह। सब पूरी करना चाहते हैं अपनी उम्मीदें कुछ लोग औरों की उम्मीदें बनते हैं,कुछ उनको पूर्ण करते हैं,कुछ उम्मीदों साझा रहती हैं कई लोगो में।
यहीं हैं जिनपर मानव का संसार कायम है। मानव उम्मीद लगाता भी हैं,उम्मीदें पूरी भी करता है,उम्मीदें तोड़ता भी है। मै अपनी उम्मीदों लेकर चलता हूँ...... तुम अपनी उम्मीदें लेकर चलो.......  और कुछ उम्मीदों हमारी हो जाएँगी एकदिन।

"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"

तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...