शनिवार, 21 जनवरी 2017

"कहा जा रहें हैं हम?किस ओर हैं कदम?


कहाँ  जा रहें हैं हम?,
किस ओर हैं कदम?
किस दिशा है मंजिल,
आधुनिकता की चकाचौंध में,
आदर्शो और शुपराम्पराओं कि, 
न पुछ है न परख.
स्वार्थ परक् है हर रिश्ता,
आत्मीयता है अब मात्र किस्सा.
प्रचार और दिखावे अब रिवाज है,
वास्तविकता की अब दबी सी आवाज है.
कहा जा रहे हैं हम,
किस ओर है कदम,
इस हड़बड़ी में , धुल न हो जाए सब,
खो जाए न विश्वास,
खाक न हो अपनापन।

सोमवार, 9 जनवरी 2017

परंपराएं

"परंपराएं जब कोफ़्त का कारण बनने लगें,
तो उन्हें साइड में रख देना चाहिए। क्योंकि वो हमारी सुविधा के लिए बनी हैं, हम उनके लिए नही। "


मंगलवार, 3 जनवरी 2017

जीना-मरना

"हर रोज मरता हूँ
हर रोज जीता हूँ।
न मर पाया पूरा,
जीना भी रह गया थोड़ा।
कुछ तो रह गया अधूरा!
जीना भी है और मरना भी है,
ये अवश्यसंभावी है,
सबको करना ही है।
जिया तब जब मन खुशहाल रहा,
मरा तब जब अंदर से बदहाल रहा।
यूँ बदहाली-खुशहाली धुप-छाव जैसीं हैं,
कदमो से टकराते, आते-जाते पड़ाव जैसी है।"

रविवार, 1 जनवरी 2017

सफलता के मायने

"सफलता स्वयं को संतुष्ट करने में है,
 दुसरो को नही।"

शब्द खत्म नही हुए, खो गए हैं

"शब्द खत्म नही हुए,
खो गए हैं मन की गहराईओं में।
कल रुकी नही,
ठिठुर गयी है हालातों की सर्दी से।
बस स्वार्थ बचा है, इठलाता हुआ,
उंगलिओं पर सबको नचाता हुआ।
अब रह गया है बस अर्थ,
हो गया बाकि सब व्यर्थ।
साम अब औपचारिक है,
सुबह भी अव्यवहारिक है।
ऊबे हुए है एहसास सारे,
बिखरे हुए हैं विश्वास सारे।
खिसक रहा हर दिन ऊबता सा,
है हैरान सा और धुंधला सा। "

बस वर्ष नया है

"बस वर्ष नया है,
और कुछ नही।
वही स्थिति है, 
वही परिस्थिति है।
न बदले लोग,
न बदली वृत्ति है"

"नई नस्लों का जीवन धन्य कर दो"

तितलियों में थोड़ी और रंगत भर दो। जुगनुओं में थोड़ी और चमक भर दो। फूलों को ज्यादा खुशबुएँ दे दो। हिमानियों को अधिक सुदृढ़ कर दो। जल धाराओं को अ...